Book Title: Sramana 2009 01
Author(s): Shreeprakash Pandey, Vijay Kumar
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 23
________________ १८ . श्रमण, वर्ष ६०, अंक १/जनवरी-मार्च २००९ सम्मान का सूचक है। महावीर काल में जैन धर्म में नारी को प्रशंसा में उन्नत भाव नहीं है और न निन्दा में अवनत भाव है. सामाजिक-धार्मिक कार्यों की पूर्ण स्वतंत्रता थी। पर्दा-प्रथा, वह ऋजुभाव को प्राप्त संयमी महर्षि पापों से विरत होकर सती-प्रथा, बाल-विवाह, बालिका-हत्या, अशिक्षा आदि बुराईयों निर्वाण मार्ग को प्राप्त करता है। अतः जैन संघ ने जाति-भेद एवं कुरीतियों से दूर रहकर पुरुषों की तरह स्त्रियों को भी अपने को परे रखकर एवं समानाधिकार प्रदान कर सभी लोगों के लिए विकास की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान थी। वह अपनी इच्छानुसार प्रव्रज्या के द्वार खोल दिये। कर्म-व्यवस्था जो तत्कालीन व्रत, दान आदि कर सकती थी। उसे समाज एवं घर-परिवार समाज-व्यवस्था में जन्मना मानी जाती थी उसे महावीर स्वामी में सम्मानजनक स्थान प्राप्त था। जैन कला में भी नारी देवी, नेकर्मणा स्थापित किया। उन्होंने मनुष्य को ईश्वरीय हस्तक्षेप से यक्षी, आर्यिका, श्राविका, साध्वी आदि रूपों में अंकित है, जो मुक्त करके स्वयं अपना भाग्यविधाता माना और अपने सांसारिक समाज में नारी की प्रधानता को इंगित करता है। महावीर एवं आध्यात्मिक जीवन में मनुष्य को उसके प्रत्येक कर्म के स्वामी ने नारी को धम्म सहाया कहकर धर्म की सहायिका लिए उत्तरदायी बताया। यही कारण है कि जैन धर्म ने समाज माना और सम्मान प्रदान किया। वे स्त्री-समाज के समानाधिकार । के उत्पीडित वर्गों को अत्यधिक प्रभावित किया। जिससे वैश्यों के पूर्ण पक्षपाती थे। महावीर स्वामी ने उन्हें मोक्षाधिकार प्रदान को जो आर्थिक रूप से शक्तिशाली थे, परन्तु जिन्हें तदनुरूप किया। स्त्रियों के लिए संघ के द्वार खोल दिये। श्रमणी और। सामाजिक मान्यता प्राप्त नहीं थी और शूद्र जो स्पष्ट रूप से श्राविकाओं के दो वर्ग नारियों के थे और आज भी हैं। दलित और सताए हुए थे, को इस वर्ण-निरपेक्ष समाज में भद्रबाहुकृत कल्पसूत्र में वर्णित है कि पार्श्वनाथ के श्रमण । सम्मिलित होकर अपने वर्ण से उबरने का अवसर मिल गया। अनुयायी १६,००० थे, श्रमणियाँ ३८०००, श्रावक १६४००० इस प्रकार जैन मत जन्मना वर्ण-व्यवस्था का विरोधी था और तथा श्राविकाएँ ३२७००० थीं। अतः स्पष्ट है कि पार्श्वनाथ इस दृष्टि से इसे वर्ण-निरपेक्ष आंदोलन कहा जा सकता है।९६ के अनुयायियों में स्त्रियों की संख्या सर्वाधिक थी। महावीर व्यापार-वाणिज्य एवं नगर-संस्कृति के प्रसार में भूमिका स्वामी के जैन संघ में ३६००० श्रमणियाँ, १४००० श्रमण, जैन धर्म ने अपने सैद्धांतिक व व्यावहारिक रूप में १५९००० श्रावक एवं ३१८००० श्राविकाएँ थीं। अतः जैन व्यापार-वाणिज्य एवं नगर-संस्कृति के विकास में महत्त्वपूर्ण संघ में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की संख्या अधिक थी। भूमिका निभायी। वाशम का मानना है कि जैन धर्म व्यावहारिक वास्तव में स्त्रियों को भिक्षुणियों के रूप में स्वीकार करना शुचिता तथा मितव्ययिता के व्यवसायोचित गुणों को प्रोत्साहित तत्कालीन सामाजिक परिवेश में एक क्रांतिकारी कदम था। करता था। अहिंसा पर अत्यधिक बल देने के कारण जैन वर्ण-निरपेक्ष आंदोलन का सूत्रपात धर्मावलम्बियों ने व्यापारिक क्रियाकलापों से अविच्छिन्नरूपसे जैन धर्म ने वर्ण-व्यवस्था की बुराईयों पर गंभीर चिन्ता अपने आपको जोड़ लिया। फलतः प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप प्रकट करते हुए जाति-भेद की भर्त्सना की। महावीर स्वामी के से कला, कलात्मक शिल्पों को प्रोत्साहन मिला तथा नवीन समय प्राचीन अंधविश्वासों,कर्मकाण्डों और वर्ण-व्यवस्था की व्यावसायिक तत्त्वों का उदय हुआ। मितव्ययिता की प्रवृत्ति विशाल दीवारें खड़ी थीं, अतः प्रबल गवेषणा, सत्यानुसंधान व्यापारियों की भावना के अनुकूल थी,अत: जैन समाज अपनेएवं रहस्योद्घाटन की दुर्धर्ष उत्कण्ठा के इस काल में उन्होंने आपको आर्थिक लेन-देन तक ही सीमित रखा। इस प्रकार जैन समाज को सद्मार्ग दिखाया। सभी व्यक्ति चाहे वे किसी भी धर्म नगर-संस्कृति के प्रसार से संबद्ध हो गया। पश्चिमी तट पर जाति या धर्म के हों पुरुषार्थ द्वारा मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। समुद्री व्यापार होता था, जहाँ जैनियों ने साहूकारी करना प्रारम्भ सूत्रकृतांगसूत्र में जात्याभिमान को १८ पापों में एक पाप माना किया और दूसरे लोग पण्य-वस्तुओं के साथ समुद्र-पार यात्रा गया है। लेकिन निर्वाण प्राप्ति हेतु मनुष्य को अपनी निम्न पर जाने लगे। जैनियों की वाणिज्यवृत्ति से न केवल नगरप्रवृत्तियों का दमन करना होगा। भगवान् महावीर ने कहा है कि संस्कृति का विकास हुआ, अपितु राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 'जो न अभिमानी है और न दीनवृत्ति वाला है, जिसकी पूजा- भारतीय व्यापार और वाणिज्य को गतिशीलता मिली।

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