Book Title: Sramana 2009 01
Author(s): Shreeprakash Pandey, Vijay Kumar
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 12
________________ पतञ्जलि का अष्टांग योग तथा जैन योग-साधना हुआ है। कार्मिक आवरणों के क्षय से जो समाधि-अवस्था प्राप्त होती है, वह निर्बीज है; क्योंकि वहाँ कर्म-बीज सम्पूर्णत: दग्ध हो जाता है। कर्मों के उपशम से प्राप्त उन्नत दशा फिर अवनत दशा में परिवर्तित हो सकती है, पर कर्म-क्षय से प्राप्त उन्नत दशा में ऐसा नहीं होता । पातञ्जल और जैन योग के इन बिन्दुओं पर गहराई से विचार अपेक्षित है। कायोत्सर्ग 'कायोत्सर्ग' जैन परम्परा का एक पारिभाषिक शब्द है। इसका ध्यान के साथ विशेष सम्बन्ध है, कायोत्सर्ग का शाब्दिक अर्थ है - शरीर का त्याग - विसर्जन । पर जीते जी शरीर का त्याग कैसे संभव है? यहाँ शरीर के त्याग का अर्थ है शरीर की चंचलता का विसर्जन, शरीर का शिथिलीकरण, शारीरिक ममत्व का विसर्जन, 'शरीर मेरा हैं' - इस भावना का विसर्जन । ममत्व और प्रवृत्ति मन और शरीर में तनाव पैदा करते हैं। तनाव की स्थिति में ध्यान कैसे हो? अतः मन को शान्त व स्थिर करने के लिए शरीर को शिथिल करना बहुत आवश्यक है। शरीर उतना शिथिल होना चाहिए, जितना किया जा सके। शिथिलीकरण के समय मन पूरा खाली रहे, कोई चिन्तन न हो, जप भी न हो, यह न हो सके तो ओम् आदि का ऐसा स्वर-प्रवाह हो कि बीच में कोई अन्य विकल्प आ ही न सके। उत्तराध्ययनसूत्र, आवश्यकनिर्युक्ति, दशवैकालिकचूर्णि आदि में विकीर्ण रूप में एतत्सम्बन्धी सामग्री प्राप्य है। अमितगति - श्रावकाचार और मूलाचार में कायोत्सर्ग के प्रकार, कालमान आदि पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। कायोत्सर्ग के कालमान में उच्छ्वासों की गणना एक विशेष प्रकार से वहाँ वर्णित है। कायोत्सर्ग के प्रसंग में जैन आगमों में विशेष प्रतिमाओं का उल्लेख है। प्रतिमा अभ्यास की एक विशेष दशा है । भद्रा प्रतिमा, महाभद्रा प्रतिमा, सर्वतोभद्रा प्रतिमा तथा महाप्रतिमा - कायोत्सर्ग की इन विशेष दशाओं में स्थित होकर भगवान् महावीर ध्यान किया था, जिनका आगमों में उल्लेख है। स्थानांगसूत्र में सुभद्र प्रतिमा का भी उल्लेख है। इनके अतिरिक्त समाधिप्रतिमा, उपधान- प्रतिमा, विवेक-प्रतिमा, व्युत्सर्ग-प्रतिमा, क्षुल्लिकामोद-प्रतिमा, यवमध्या प्रतिमा, वज्रमध्या प्रतिमा आदि का भी आगम-साहित्य में उल्लेख मिलता है। पर इनके स्वरूप सम्बन्ध में कुछ विशेष उल्लेख प्राप्त नहीं है। प्रतीत होता है, यह परम्परा लुप्त हो गई जो एक गवेषणीय विषय है। ७ आलम्बन, अनुप्रेक्षा, भावना ध्यान को परिपुष्ट करने के लिए जैन आगमों में उनके आलम्बन, अनुप्रेक्षा आदि पर भी विचार किया गया है। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में इनकी विशेष चर्चा की है। उदाहरणार्थ - उन्होंने शान्ति, मुक्ति, मार्दव तथा आर्ज को शुक्ल- ध्यान का आलम्बन कहा है। अनन्तवृत्तिता अनुप्रेक्षा, विपरिणाम अनुप्रेक्षा, अशुभ अनुप्रेक्षा तथा उपाय अनुप्रेक्षा शुक्ल - ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ हैं। ध्यान के लिए अपेक्षित निर्द्वन्द्वता के लिए जैन आगमों में द्वादश भावनाओं का वर्णन है। आचार्य हेमचन्द्र, शुभचन्द्र आदि ने भी उनका विवेचन किया है। वे भावनाएँ निम्नांकित हैं अनित्य, अशरण, भव, एकत्व, अन्यत्व, अशौच, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म, लोक एवं बोधि- दुर्लभता । इन भावनाओं के विशेष अभ्यास का जैन परम्परा में एक मनोवैज्ञानिकता पूर्ण व्यवस्थित क्रम रहा है। मानसिक आवेगों को क्षीण करने के लिए भावनाओं के अभ्यास का बड़ा महत्त्व है। आलम्बन, अनुप्रेक्षा, भावना आदि का जो विस्तृत अर्थ जैन (योग के) आचार्यों ने किया है, उसके पीछे विशेषतः यह अभिप्रेत रहा है कि चित्तवृत्तियों के निरोध के लिए अपेक्षित निर्मलता, विशद्ता एवं उज्ज्वलता का अन्तर्मन में उद्भव हो सके। आचार्य हेमचन्द्र का अनुभूत विवेचन आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र का अन्तिम प्रकाश (अध्याय) उनके अनुभव पर आधृत है। उसका प्रारम्भ करते हुए वे लिखते हैं- “शास्त्र रूपी समुद्र से तथा गुरु-मुख से जो मैंने प्राप्त किया, वह पिछले प्रकाशों (अध्यायों) में मैंने भली-भाँति विवेचित कर ही दिया है। अब, मुझे जो अनुभव से प्राप्त है, वह निर्मल तत्त्व प्रकाशित कर रहा हूँ।" १२३ इस प्रकाश में उन्होंने मन का विशेष रूप से विश्लेषण किया है। उन्होंने योगाभ्यास के प्रसंग में विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट तथा सुलीन आदि मन के चार भेद किये हैं। उन्होंने अपनी दृष्टि से इनकी विशद् व्याख्या की है। योगशास्त्र का यह अध्याय साधकों के लिए विशेष रूप से अध्येतव्य है। हेमचन्द्र ने विविध प्रसंगों में बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा, औदासीन्य, उन्मनीभाव, दृष्टि- जय, मनोजय आदि विषयों पर भी अपने विचार उपस्थित किये हैं । बहिरात्मा,

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