________________
पतञ्जलि का अष्टांग योग तथा जैन योग-साधना
धारणा, ध्यान, समाधि
ध्यान, समाधि आदि गौण हो गये हैं। फलतः ध्यान सम्बन्धी धारणा, ध्यान, समाधि- ये योग के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अनेक तथ्यों का लोप हो गया है। अंग हैं। पातञ्जल व जैन- दोनो योग-परम्पराओं में ये नाम स्थानांगसूत्र अध्ययन चार, उदेशक एक, समवायांगसूत्र समान रूप में प्राप्त होते हैं। आचार्य हरिभद्र, हेमचन्द्र, शुभचन्द्र, समवाय चार, आवश्यकनियुक्ति के कायोत्सर्ग अध्ययन में यशोविजय आदि विद्वानों ने अपनी-अपनी शैली में इनका तथा अनेक आगम ग्रन्थों में एतद सम्बन्धी सामग्री पर्याप्त विवेचन किया है।
मात्रा में बिखरी पड़ी है। धारणा के अर्थ में एकाग्र मनःसन्निवेशना शब्द भी आचार्य हेमचन्द्र और शुभचन्द्र ने ध्याता की योग्यता प्रयुक्त हुआ है। धारणा आदि इन तीन अंगों का अत्यधिक व ध्येय के स्वरूप का विवेचन करते हुए ध्येय को पिण्डस्थ, महत्त्व इसलिए है कि योगी इन्हीं के सहारे उत्तरोत्तर दैहिकता पदस्थ रूपस्थ और रूपातीत- इन चार प्रकारों में बाँटा है। से छटता हआ आत्मोत्कर्ष की उन्नत भूमिका पर आरूढ होता उन्होंने पार्थिवी, आग्नेयी, वायवी, वारुणी और तत्त्वभ के नाम जाता है। प्रश्नव्याकरणसूत्र के संवरद्वार तथा व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र से पिण्डस्थ ध्यान की पाँच धारणाएँ बताई हैं.जिनके सम्बन्ध के पच्चीसवें शतक के सप्तम उद्देशक आदि अनेक आगमिक में विवक्षा की विशेष आवश्यकता है। इसी प्रकार पदस्थ, स्थलों में ध्यान आदि का विशद् विश्लेषण हुआ है। रूपस्थ और रूपातीत ध्यान का भी उन्होंने विस्तृत विवेचन
महर्षि पतञ्जलि ने शरीर के बाहर-आकाश, सूर्य, किया है, जिनका सूक्ष्म अनुशीलन अपेक्षित है। चन्द्र आदि; शरीर के भीतर नाभिचक्र, हृत्कमल आदि में से आचार्य हेमचन्द्र केयोगशास्त्र के सप्तम,अष्टम,नवम, किसी एक देश में चित्तवृत्ति लगाने को धारणा' कहा है। दशम और एकादश प्रकाश में ध्यान का विशद् वर्णन है। ध्येय-वस्तु में वृत्ति की एकतानता अर्थात् उसी वस्तु में चित्त धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान, जो आत्म-नैर्मल्य के का एकाग्र हो जाना ध्यान है। जब केवल ध्येय मात्र की ही हेतु हैं, का उक्त आचार्यों (हरिभद्र, हेमचन्द्र, शुभचन्द्र) ने प्रतीति हो तथा चित्त का अपना स्वरूप शून्य जैसा हो जाय, अपने ग्रन्थों में सविस्तार वर्णन किया है। ये दोनों आत्मलक्षी तब वह ध्यान समाधि हो जाता है। धारणा, ध्यान और हैं। शुक्ल" ध्यान विशिष्ट ज्ञानी साधकों को होता है। वह समाधि का यह संक्षिप्त वर्णन है। भाष्यकार व्यास ने इनका अन्तःस्थैर्य या आत्म-स्थिरता की पराकाष्ठा की दशा है। बड़ा विस्तृत तथा मार्मिक विवेचन किया है।
धर्म-स्थान उससे पहले की स्थिति है, वह शुभमूलक है। जैन आन्तरिक परिष्कृति, आध्यात्मिक विशुद्धि के लिए जैन परम्परा में अशुभ, शुभ और शुद्ध इन तीन शब्दों का विशेष साधना में भी ध्यान का बहुत बड़ा महत्त्वरहा है। अन्तिम तीर्थंकर रूप से व्यवहार हुआ है। अशुभ पापमूलक, शुभ पुण्यमूलक महावीर का अन्यान्य विशेषणों के साथ एक विशेषण ध्यान- तथा शुद्ध पाप-पुण्य से अतीत निरावरणात्मक स्थिति है। योगी भी है। आचारांगसूत्र के नवम अध्ययन में जहाँ भगवान् धर्म-ध्यान के चार भेद हैं- आज्ञा-विचय, अपायमहावीर की चर्या का वर्णन है, वहाँ उनकी ध्यानात्मक साधना विचय, विपाक-विचय तथा संस्थान-विचय। स्थानांगसूत्र, का भी उल्लेख है। विविध आसनों से विविध प्रकार से,नितान्त समवायांगसूत्र, आवश्यकसूत्र आदि अर्द्धमागधी आगमों में असंग भाव से उनके ध्यान करते रहने के अनेक प्रेरक प्रसंग वहाँ विकीर्ण रूप में इनका वर्णन मिलता है। वर्णित हैं। एक स्थान पर लिखा गया है कि वे सोलह दिन-रात आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान- ये ध्येय हैं। तक सतत ध्यानशील रहे। उनकी स्तवना में वहीं पर कहा गया जैसे स्थूल या सूक्ष्म आलम्बन पर चित्त एकाग्र किया जाता है कि वे अनुत्तर ध्यान के आराधक हैं। उनका ध्यान शंख और है। वैसे ही इन ध्येय विषयों पर चित्त को एकाग्र किया जाता इन्दु की भाँति परम शुक्ल है।
है। इनके चिन्तन से चित्त की शुद्धि होती है, चित्त निरोध दशा वास्तव में जैन परम्परा की जैसी स्थिति आज है, की ओर अग्रसर होता है, इसलिए इनका चिन्तन धर्म-ध्यान महावीर के समय में सर्वथा वैसी नहीं थी। आज लम्बे कहलाता है। उपवास, अनशन आदि पर जितना जोर दिया जाता है, उसकी धर्म-ध्यान चित्त-शुद्धियाचित्त-निरोधका प्रारम्भिक तुलना में मानसिक एकाग्रता, चैतसिक वृत्तियों का नियन्त्रण, अभ्यास है।शुक्ल-ध्यान में यह अभ्यास परिपक्व हो जाता है।