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श्रमण, वर्ष ६०, अंक १/जनवरी-मार्च २००९
अन्तरात्मा तथा परमात्मा के रूप में आत्मा के जो तीन भेद है,जो ज्ञान और जीवन चर्या के उभय पक्ष का समाधायक है। किये जाते हैं. वे आगमोक्त हैं। विशेषावश्यकभाष्य में उनका सांख्य दर्शन अनेक पुरुषवादी है। पुरुष का आशय यहाँ सविस्तार वर्णन है।
आत्मा से है। जैन दर्शन के अनसार भी आत्मा अनेक है। जैन इस अध्याय में हेमचन्द्र ने और भी अनेक महत्त्वपूर्ण । दर्शन और सांख्य दर्शन के अनेकात्मवाद पर गवेषणात्मक विषयों की चर्चा की है, जो यद्यपि संक्षिप्त हैं पर विचार दृष्टि से गम्भीर परिशीलन वाञ्छनीय है। सामग्री की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
इसके अतिरिक्त पातञ्जल योग तथा जैन योग के अनेक करणीय
ऐसे पहल हैं, जिन पर गहराई में तुलनात्मक अध्ययन किया जाना योग दर्शन, साधना और अभ्यास के मार्ग का उद्बोधक चाहिए। क्योंकि इन दोनों परम्पराओं में काफी सामंजस्य है। यह है। उसकी वैचारिक पृष्ठभूमि या तात्त्विक आधार सांख्य दर्शन सामंजस्य केवल बाह्य है या तत्त्वतः उनमें कोई ऐसी सूक्ष्म है, यही कारण है कि दोनों को मिलाकर सांख्य-योग कहा आन्तरिक समन्विति भी है,जो उनका सम्बन्ध किसी एक विशेष जाता है। दोनों का सम्मिलित रूप ही एक समग्र दर्शन बनता स्रोत से जोड़ती हो, यह विशेष रूप से गवेषणीय है।
सन्दर्भ: १. योगसूत्र, १/२.
१४. शुचं क्लमयतीति शुक्लम-शोकं ग्लपयतीत्यर्थः। २. वही, २/२९.
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक१. ३. वही, १/३.
१५. आज्ञाऽपायविपाकसंस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य। ४. तृणगोमयकाष्ठाग्निकणदीपप्रभोपमा।
तत्त्वार्थसूत्र ९.३७. रत्नतारार्कचन्द्राभाः सदृष्टेदृष्टिरष्टधा।। योगदृष्टि- १६. पृथक्तवैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियासमुच्चय १५.
निवृतीनि। - वही, ९.४१. ५. योगशास्त्र १/१५.
१७. आत्मा के मूल गुणों का घात करने वाले। ६. जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्। १८. तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः। योगसूत्र, २/ ३१.
योगसूत्र १/४२ ७. जायते येन येनेह, विहितेन स्थिरं मनः।
१९. ज्ञेयं नानात्वश्रुतविचारमैक्य-श्रुताविचारं च। तत्तदेव विधातव्यमासनं ध्यान-साधनम।। योगशास्त्र सूक्ष्म-क्रियमुत्सन्न-क्रियमिति भेदैश्चतुर्धा तत्।। योगशास्त्र,
४/१३४ ८. शुभ प्रवृत्ति से होने वाली आत्मा की आंशिक उज्ज्वलता २०. स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का। निर्जरा कहलाती है।
योगसूत्र १/४३ ९. १. अनशन, २. उनोदरी (अवमौदर्य), ३. भिक्षाचरी, २१. एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता।
४. रस-परित्याग, ५. काय-क्लेश, ६. प्रतिसंलीनता, वही, १.४४. ७. प्रायश्चित्त, ८. विनय, ९. वैयावृत्य (सेवा), २२. अष्टोत्तरशेतोच्छवास: कायोत्सर्गः प्रतिक्रमे। १०. स्वाध्याय, ११. कायोत्सर्ग।
सान्ध्ये प्राभातिके वार्ध-मन्यस्तप्तविंशतिः।। १०. स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां सप्तविंशतिरुच्छ्वासाः संसारोन्मूलनक्षमे। प्रत्याहारः। योगसूत्र, २-५४.
सन्ति पञ्च नमस्कारे, नवधा चिन्तिते सति।। ११. देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। योगसूत्र, ३/१.
अमितिगति श्रावकाचार ६.६८-६९. १२. तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्। वही, ३/२.
२३. श्रुतसिन्धोर्गुरुमुखतो यदधिगतं तदिह दर्शितं सम्यक्। १३. तदेवार्थमात्रनिर्भासंस्वरूपशून्यमिवसमाधिः। वही, ३/३ अनुभवसिद्धमिदानी प्रकाश्यते तत्त्वमिदममलम्।।
योगशास्त्र १२.१