Book Title: Sramana 1991 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 11
________________ पंचपरमष्ठि मन्त्र का कर्तृत्व और दशवकालिक से इस ग्रंथ में साधु शब्दोल्लेख को दृष्टिपथ में लायेंगे । ग्रन्थ का प्रारंभ मुनि जीवन की चर्या को मधुकर के सदृश कहकर करते हैं कि जिस प्रकार भ्रमर वृक्षों के पुष्पों में से थोड़ा-थोड़ा रस पीता है तथा पुष्प को पीड़ा नहीं पहुँचाता और वह अपने आपको तृप्त कर लेता है, उसी प्रकार लोक में जो परिग्रह से मुक्त साधु हैं, वे दान-भक्त की एषणा में रत रहते हैं, जैसे भौंरे फूलों में। इन गुणों के कारण वे साधु कहलाते हैं। जिनका आत्मा संयम में सुस्थिर है, जो बाह्यअभ्यन्तर परिग्रह से विमुक्त हैं तथा जो ( स्व-पर के ) त्राता हैं। त्यागी वही कहलाता है जो कान्त ( कमनीय-चित्ताकर्षक ) और प्रिय भोग उपलब्ध होने पर भी ( उनकी ओर से ) पीठ फेर लेता है और स्वाधीन रूप से प्राप्त भोगों का स्वेच्छा से त्याग करता है। साधु कैसा हो ? उसके लिए कहा है-जो ज्ञात पुत्र (श्रमण भगवान् महावीर ) के वचनों में रुचि (श्रद्धा) रखकर षटकायिक जीवों को आत्मवत् मानता है, जो पंच महाव्रतों का पालन करता है, जो पांच आस्रवों का संवरण करता है, वह सद्भिक्षु है। साधु है या असाधु, इसकी जानकारी हेतु आलेखन है कि गुणों से साधु होता है और अगुणों ( दुगुणों) से असाधु ! इसलिए साधु के योग्य गुणों को ग्रहण कर और असाधु गुणों को छोड़। आत्मा को आत्मा से जानकर जो राग-द्वेष में सम ( मध्यस्थ ) रहता है, वही पूज्य है।" लोक में बहुत से असाधु को साधु कहते हैं किन्तु असाधु को-'यह साधु है' इस प्रकार न कहें। अपितु साधु को ही यह साधु है, इस प्रकार कहें । ज्ञान और दर्शन से सम्पन्न तथा संयम और तप में रत, इस प्रकार के सद्गुणों से समायुक्त संयमी को ही साधु कहें । साधुओं के साथ ही परिचय करें। १. दशवैकालिक १।२-५ २. वही, ३११ ३. वही, २।३ ४. वही, १०५ ५. वही, ९।३.११ ६. वही, ७।४८-४९ ७. वही, ८५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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