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[ १४ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क सम्बन्ध में कोई बात न बतावे तो इससे पाप आदि का वर्णन आया है। इस अध्याय के अन्त में यह उपदेश दिया है कि स्त्री, बाल, भृत्य, “गो विप्रेष्वति कोपं विवर्जयेत" इन पर अति कोप नहीं करना (२६ समाप्ति)। १० अगम्यागमन प्रायश्चित्तवर्णनम् । ६६६
दशम अध्याय में अगम्यागम्य प्रायश्चित्त का वर्णन है। चातुर्वर्ण को अगम्यागम्य में चान्द्रायण व्रत बतलाया है (१) । चान्द्रायण व्रत की परिभाषा बतलाई है, शुक्लपक्ष में एक-एक ग्रास बढ़ावे और कृष्ण पक्ष में एक एक प्रास घटावे । ग्रास का प्रमाण कुक्कुट (मुगा) के अंड के समान बताया है (२-३)। चाण्डालनी के गमन करने से पाप का प्रायश्चित्त (४-६)। माता, माता की बहिन और लड़की के गमन करने पर चान्द्रायण व्रत बतलाया है (१०-१४)। पिता की बहु त्रियाँ और माँ की सम्बन्धी, भ्रात भार्या, मामी, सगोत्रा इनके गमन का प्रायश्चित्त बतलाया है। पशु और वेश्या गमन या गो गामी या भैस के साथ गमन करने का प्रायश्चित्त है (१५-१६)। मनुष्य का कर्तव्य-बीमारी, संग्राम, दुर्भिक्ष, कदखाने में भी औरत की रक्षा करता जाय (१७)। व्यभिचार से दुःखित स्त्री के शुद्धि और शुद्धि के प्रसंग में बताया है