________________
' [ २० ] अध्याय प्रधानविषय
पृष्ठाङ्क ह। सतयुग को ब्राह्मण युग, त्रेता को क्षत्रिय युग, द्वापर को वैश्य युग तथा कलियुग को शूद्र युग बताया है । वर्णाश्रम धर्म की क्षमता उस भूमि में बताई है जिसमें कृष्णसार मृग स्वभावतः स्वतंत्रता पूर्वक विचरण करते हैं। हिमालय और विन्ध्याचल के मध्य देश को पावन देश बताया है और अन्य देश जहाँ से नदियों साक्षात् समुद्रगामिनी हैं उन्हें भी तीर्थस्थान बताया है। इसमें पराशरजीने अपने पुत्र व्यास को द्विज कर्म और षट्कर्म वर्णधर्मकी प्रशंसा और गो वृषभ का पालन पशुपालन विधि षट्कर्म वर्णधर्माश्च प्रशंसा गोवृषस्य च । अदोध-वाह्यौ यो तत्र क्षीरं क्षीरप्रयोक्त्रिणा ॥ अमावास्या निषिद्धानि ततश्च पशुपालनम् ॥ विवाह संस्कार, प्रतचर्यादि, पुत्रजन्म, अखिल गृहस्थधर्म का उपदेश, भक्ष्याभक्ष्य की व्यवस्था, द्रव्य शुद्धि, अध्ययनाध्यापन का समय, श्राद्ध कर्म, नारायणबली, सूतक तथा अशौच, प्रायश्चित्त विधान, दानविधि तथा फल, भूमिदान की प्रशंसा, इष्टापूर्त कर्म, ग्रहों की शान्ति, वानप्रस्थ धर्म, चारों आश्रम, दो मार्ग, अर्चि तथा धूम मार्ग इन सबका वर्णन यथानुपूर्व वृहत् पराशर के द्वादश अध्याय में बताया है (३६-६४)।