Book Title: Siddhsen Diwakar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 16
________________ भूमिका थे। दूसरे यह कि सिद्धसेन अथवा उनके ग्रन्थ सन्मतिसूत्र का उल्लेख जिनसेन, हरिषेण, वीरषेण आदि दिगम्बर आचार्यों ने किया है- इस आधार पर वे उनके दिगम्बर परम्परा के होने की सम्भावना व्यक्त करते हैं। यदि आदरणीय मुख्तार जी उनके ग्रन्थों में स्त्रीमक्ति, केवलीभक्ति या सवस्त्रमक्ति का समर्थन नहीं होने के निषेधात्मक तर्क के आधार पर उन्हें दिगम्बर मानते हैं, तो फिर इसी प्रकार के निषेधात्मक तर्क के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि उनके ग्रन्थों में स्त्रीमुक्ति, केवलीभुक्ति और सवस्त्र मुक्ति का खण्डन नहीं है, अत: वे श्वेताम्बर परम्परा के आचार्य हैं। पुनः मुख्तार जी ये मान लेते हैं कि रविषेण और पुत्राटसंघीय जिनसेन दिगम्बर परम्परा के हैं, यह भी उनकी भ्रांति है। रविषेण यापनीय परम्परा के हैं अत: उनके परदादा गुरु के साथ में सिद्धसेन दिवाकर का उल्लेख मानें तो भी वे यापनीय सिद्ध होंगे, दिगम्बर तो किसी भी स्थिति में सिद्ध नहीं होगें। आदरणीय मुख्तारजी ने एक यह विचित्र तर्क दिया है कि श्वेताम्बर प्रबन्धों में सिद्धसेन के सन्मतिसूत्र का उल्लेख नहीं है, इसलिए प्रबन्धों में उल्लिखित सिद्धसेन अन्य कोई सिद्धसेन हैं, वे सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन नहीं हैं। किन्तु मुख्तारजी ये कैसे भूल जाते हैं कि प्रबन्ध ग्रन्थों के लिखे जाने के पाँच सौ वर्ष पूर्व हरिभद्र के पंचवस्तु तथा जिनभद्र की निशीथचूर्णि में सन्मतिसूत्र और उसके कर्ता के रूप में सिद्धसेन के उल्लेख उपस्थित हैं। जब प्रबन्धों से प्राचीन श्वेताम्बर ग्रन्थों में सन्मतिसूत्र के कर्ता के रूप में सिद्धसेन का उल्लेख है, तो फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि प्रबन्धों में जो सिद्धसेन का उल्लेख है, वह सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन का न होकर कुछ द्वात्रिंशिकाओं और न्यायावतार के कर्ता किसी अन्य सिद्धसेन का है। पुनः श्वेताम्बर आचार्यों ने यद्यपि सिद्धसेन के अभेदवाद का खण्डन किया है और उन्हें आगमों की अवमानना करने पर दण्डित किये जाने का उल्लेख भी किया है, किन्तु किसी ने भी उन्हें अपने से भिन्न परम्परा या सम्प्रदाय का नहीं बताया है। श्वेताम्बर परम्परा के विद्वान् उन्हें मतभिन्नता के बावजूद भी अपनी ही परम्परा का आचार्य प्राचीन काल से मानते आ रहे हैं। श्वेताम्बर ग्रन्थों में उन्हें दण्डित करने की जो कथा प्रचलित है, वह भी यही सिद्ध करती है कि वे सचेल धारा में ही दीक्षित हुए थे, क्योंकि किसी आचार्य को दण्ड देने का अधिकार अपनी ही परम्परा के व्यक्ति को होता है- अन्य परम्परा के व्यक्ति को नहीं। अत: सिद्धसेन दिगम्बर परम्परा के आचार्य थे, यह किसी भी स्थिति में सिद्ध नहीं होता है। केवल यापनीय ग्रन्थों और उनकी टीकाओं में सिद्धसेन का उल्लेख होने से इतना ही सिद्ध होता है कि सिद्धसेन यापनीय परम्परा में मान्य रहे हैं। पुनः श्वेताम्बर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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