Book Title: Siddhsen Diwakar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 76
________________ सिद्धसेन दिवाकर की कृतियाँ भी रची हों और बाद में उन्होंने या उनके शिष्यों ने उनकी इन सभी कृतियों का संग्रह किया हो । ४ इसी सन्दर्भ में एक प्रश्न यह उठता है कि क्या सभी द्वात्रिंशिकाएँ एक ही सिद्धसेन की कृति हैं, या किसी अन्य की। प्रथम पांच द्वात्रिंशिकाओं में से पांचवीं द्वात्रिंशिका के ३२वें श्लोक ४१ एवं २१वीं द्वात्रिंशिका के ३१ वें श्लोक में ४२ सिद्धसेन का नाम आया है । परन्तु प्रथम पाँच द्वात्रिंशिकाएँ, जिन्हें पं० सुखलाल जी प्रभृत विद्वानों ने प्रथम वर्ग में रखा है, का सामञ्जस्य उनकी भाषा एवं वर्ण्यवस्तुओं के आधार पर २१वीं द्वात्रिंशिका से नहीं बैठ पाता है । २१वीं द्वात्रिंशिका में महावीर ४३ नाम का उल्लेख है, जबकि अन्य किसी द्वात्रिंशिका में ऐसा उल्लेख नहीं है, 'वीर' और 'वर्धमान' नाम अवश्य मिलते हैं । २१वीं द्वात्रिंशिका में दो विलक्षणताएँ और मिलती हैं, पहली — इसका परिमाण ३३ श्लोक का है, जो अन्य सभी द्वात्रिंशिकाओं से अधिक है एवं दूसरी, इस द्वात्रिंशिका के ३३वें पद्य में स्तुति महात्म्य का पाया जाना। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि ये दोनों (पांचवी एवं इक्कीसवीं) द्वात्रिंशिकाएँ भिन्न-भिन्न सिद्धसेनों की कृतियाँ होनी चाहिए।४४ पण्डित सुखलाल जी का भी यही मत है। उन्होंने अपने सन्मति प्रकरण की प्रस्तावना में लिखा है कि इनमें जो २१वीं महावीर द्वात्रिंशिका है उसकी भाषा, रचना, शैली और विषयवस्तु की दूसरी बत्तीसी के साथ तुलना करने पर ऐसा मालूम होता है कि वह बत्तीसी किसी जुदे ही सिद्धसेन की कृति है और चाहे जिसे कारण से दिवाकर (सिद्धसेन) की मानी जाने वाली कृतियों में शामिल कर ली गयी है । ४५ ४३ स्तुतिपरक छ : द्वात्रिंशिकाओं (प्रथम पांच एवं ग्यारहवीं) के अतिरिक्त जो १५ द्वात्रिंशिकाएँ मिलती हैं, वे न तो स्तुतिविषयक हैं और न ही ऐसा लगता है कि शिवलिंग के सामने बैठकर एक ही समय में उनकी रचना की गई हो। यह तथ्य भी सभी द्वात्रिंशिकाओं के एक ही आचार्य की कृति मानने के विरुद्ध है । ४६ इस सन्दर्भ में एक और तथ्यात्मक किन्तु विरोधपूर्ण कथन जो प्रबन्धों द्वारा किया गया है, वह यह है कि 'प्रभावकचरित' एवं प्रबन्धचिन्तामणि ये दोनों प्रबन्ध सिद्धसेन द्वारा की गई स्तुति का प्रारम्भ जिस श्लोक से होना बतलाते हैं, वे एक दूसरे से भिन्न हैं यथा प्रभावकचरित के अनुसार स्तुति का प्रारम्भ Jain Education International प्रकाशितं त्वयैकेन यथा सम्यग्जत्रयम् । समस्तैरपि नो नाथ वरतीर्थाधिपैस्तथा ।। ४७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114