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सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व 'षड्दर्शनसमुच्चय' ११८ में पाया जाता है। अष्टकप्रकरण में हरिभद्र, न्यायावतार के दूसरे श्लोक को उद्धृत करते हुए उसे 'महामति'११९ के द्वारा कहा गया बतलाते हैं अर्थात् प्रकारान्तर से उन्होंने उस श्लोक के कर्ता के रूप में महामति का नामोल्लेख किया है। अब प्रश्न उठता है कि ये महामति कौन हैं? वस्तुत: महामति पद एक विशेषण है जिसे हरिभद्र ने सिद्धसेन दिवाकर, पूज्यपाद एवं समन्तभद्र के लिए प्रयुक्त किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ 'महामति' शब्द उन्होंने सिद्धसेन दिवाकर के लिये प्रयुक्त किया है एवं उद्धृत श्लोक जिसे उन्होंने महामति या सिद्धसेनकृत बतलाया है, अधिक सम्भावना है वह श्लोक सिद्धसेनकृत द्वात्रिंशिकाओं में से लुप्त 'प्रमाणद्वात्रिंशिका' का हो, जिससे हरिभद्र ने अपने ग्रन्थ अष्टकप्रकरण में लिया हो। क्योंकि प्रमाणद्वात्रिंशिका थी, इसका उल्लेख तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति २० में स्पष्टरूपेण मिलता है, यथा
अभित्रिमादशां भाज्यमभ्यात्मं तु स्वयंदशाम् । एकं प्रमाणमर्थैक्यादैक्यं तल्लक्षणैक्यतः ।। प्रमाणद्वात्रिंशिकायाम् ।
इसी प्रकार षडदर्शनसमुच्चय में उद्धृत न्यायावतार का चौथा श्लोक भी सिद्धसेन की विलुप्त 'प्रमाणद्वात्रिंशिका' का ही प्रतीत होता है, जिसे ८वीं शताब्दी के हरिभद्र ने एवं १०वीं के सिद्धर्षि ने अपनी रचनाओं में ले लिया। अत: इस आधार पर कि चूंकि न्यायावतार के कुछ श्लोक हरिभद्र के उक्त ग्रन्थों में पाये जाते हैं इसलिए न्यायावतार हरिभद्र के पूर्व की रचना है, इस कथन का कोई अर्थ नहीं रह जाता और न ही सिद्धर्षि के न्यायावतार का कर्ता होने में कोई बाधा रह जाती है।
(३) न्यायावतार को सिद्धर्षिकृत मानने में एक प्रमुख व्यवधान न्यायावतार पर की गई हरिभद्रीय वृत्ति के कारण आता है। राजशेखर सूरि ने अपने प्रबन्धकोश:२१ के हरिभद्रसूरि प्रबन्ध में न्यायावतार पर हरिभद्र द्वारा वृत्ति लिखे जाने का उल्लेख किया है, और इसे आधार पर यह कहा जाता है कि ८वीं शताब्दी के हरिभद्र ने जिस ग्रन्थ पर वृत्ति लिखी हो, वह १०वीं शताब्दी की रचना कैसे हो सकती है?
परन्तु यह प्रश्न तभी उठता है जब हम न्यायावतार के वृत्तिकार हरिभद्र को प्रथम हरिभद्र या याकिनीसून विशेषण वाला हरिभद्र मान लें। अवंधेय है कि अन्य आचार्यों की भांति हरिभद्र भी एक से अधिक अर्थात् सात हुए हैं। १२२ बौद्ध आचार्य दिङ्नाग की कृति 'न्याय-प्रवेश' पर श्री हरिभद्र ने एक वृत्ति लिखी है, जो उपलब्ध है- जो न्यायप्रवेशवृत्ति २३ के नाम से जानी जाती है, किन्तु ये हरिभद्र याकिनीसूनु हरिभद्र (प्रथम हरिभद्र) न होकर हरिभद्र द्वितीय हैं। पण्डित सतीशचन्द्रविद्याभूषण १२४
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