Book Title: Siddhsen Diwakar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 91
________________ ५८ सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व मूल में नहीं है, पर भाष्य या वृत्ति है। पुन: सिद्धर्षि ने टीका में स्वयं ही इस आने वाली शंका को समझते हुए कि 'ऊह' प्रमाण की चर्चा मूल में क्यों नहीं है, का स्पष्टीकरण देते हुए कहा है कि इस न्यायावतार प्रकरण में अनुमान से 'ऊह' को प्रथक करके नहीं दिखाया गया क्योंकि यह प्रकरण संक्षिप्त रुचि जीवों के अनुग्रह के लिए बनाया गया है। १२८ दूसरे यदि न्यायावतार को सिद्धसेन दिवाकर कृत मान लिया जाय एवं सिद्धर्षि को उपलब्ध वृत्ति का वृत्तिकार मान लिया जाय तो एक विरोध यह आता है कि सिद्धसेन दिवाकर केवल छ: नयों को ही मानते हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में नैगम का कहीं उल्लेख नहीं किया है। १२९ जबकि न्यायावतार की सिद्धर्षिकृत टीका में नैगमनय की अतिविस्तार से चर्चा की गयी है। यदि सिद्धर्षि, सिद्धसेन के ग्रन्थ पर वृत्ति लिखे होते तो जो सिद्धसेन को अभीष्ट नहीं है या तो उसका उल्लेख ही नहीं करते या फिर उल्लेख करते भी तो यह कहकर कि मूलकार नहीं मानता पर यह मेरी अपनी व्याख्या है, परन्तु ऐसा कोई उल्लेख वृत्ति में नहीं मिलता। इसप्रकार यदि मूल में अनुपस्थित नैगमनय की चर्चा वृत्तिकार सविस्तार कर सकता है तो मूल में अनुपस्थित 'उह' प्रमाण की चर्चा वृत्तिकार क्यों नहीं कर सकता। अत: उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि न्यायावतार सिद्धसेन की रचना न होकर सिद्धर्षि की रचना है एवं उपलब्ध वृत्ति उन्हीं की स्वोपज्ञवृत्ति है। कल्याणमन्दिरस्त्रोत्र कल्याणमन्दिरस्तोत्र, उज्जयिनी के महाकाल मन्दिर में रुद्रलिंग के समक्ष तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की स्तुति में रचा गया स्तोत्र है, जिसे सिद्धसेन दिवाकर की कृति मानी जाती है। प्रबन्धों के अनुसार सिद्धसेन दिवाकर ने अपने संस्कृतज्ञान के अभिमान के कारण प्राकृत जैनआगम को संस्कृत में अनुवादित करने का बीड़ा उठाया था जिसके लिए उन्हें १२ वर्षपर्यन्त अज्ञातवास में रहने का कठोर पाराञ्चिक नामक प्रायश्चित्त करना पड़ा था। उसी समय विचरण करते सिद्धसेन हरसिंगार के फूलों से रंजित भिक्षुक वेश धारण किए उज्जैन के महाकाल.३० मन्दिर में आये थे। मन्दिर में भिक्षुक ने शिवविग्रह को नमन नहीं किया। रुष्ट होकर विक्रमादित्य ने इसका कारण पूछा। उत्तर देते हुए सिद्धसेन दिवाकर ने लिंगभेद और उसके परिणामस्वरूप अप्रीति होने का भय बताया। ऐसी अनहोनी बात सनकर राजा ने परिणाम की चिन्ता किये बिना नमस्कार करने का आदेश दिया तब सिद्धसेन दिवाकर ने कल्याणमन्दिरस्तोत्र टीका के अनुसार अपने सुप्रसिद्ध संस्कृत कल्याणमन्दिरस्तोत्र द्वारा तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ के नाम से सच्चिदानन्दरूप वीतराग जगदीश की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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