Book Title: Siddhsen Diwakar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 74
________________ सिद्धसेन दिवाकर की कृतियाँ ४१ शेष सभी दार्शनिक या वर्णनात्मक हैं। स्तुत्यात्मक सात बत्तीसियों में ग्यारहवीं बत्तीसी किसी राजा की स्तुति में लिखी गयी हैं, शेष सब महावीर की स्तुति में लिखी गयी हैं। इन स्ततियों में स्तुति के बहाने जैनतत्त्वज्ञान के विविध आयामों एवं जैन आचार के विशिष्ट अंशों को भी समाहित कर लिया गया है।३१ दूसरी-तीसरी द्वात्रिंशिका में सिद्धसेन के तत्त्वविषयक चिन्तन की अपार सामर्थ्य दृष्टिगोचर होती है। २२ तीसरी में गीता के पुरुषोत्तम की भावना का महावीर में आरोपण एवं चौथी द्वात्रिंशिका में विषयभेद होने पर भी शब्दबन्ध और नाद की समानता के कारण कालिदासकृत कुमारसम्भव (सर्ग-४) के रतिविलाप जैसी समरूपता प्रतीत होती है। एक से पाँच तक की द्वात्रिंशिकाएँ वैसे तो अखण्ड सी प्रतीत होती हैं, पर उनकी सूक्ष्म विवेचना करने पर ऐसा लगता है कि इनकी रचना स्वतन्त्र रूप से अलग-अलग हुई होगी एवं बाद में एक जगह व्यस्थित कर दी गई होंगी। पांचवी बत्तीसी यद्यपि बत्तीस श्लोक जितनी एक छोटी सी कृति है फिर भी उसमें गृहस्थाश्रम, गृहत्याग, कठोर साधना के लिए वनविहार, भयंकर परीषह और उनपर विजय प्राप्त दिव्य ज्ञान और उसके द्वारा लोगों में किया गया धर्म प्रचार आदि बातें वर्णित हैं। स्तुत्यात्मक ग्यारहवीं बत्तीसी द्वात्रिंशिका के अन्त में गुणवचनद्वात्रिंशिका नाम मुद्रित है, जिसमें किसी राजा के सम्मुख उपस्थित होकर२३ स्तुति की गई है, ऐसा परिलक्षित होता है। छठी बत्तीसी में आप्त की समीक्षा की गयी है। इसमें प्राचीन मान्यताओं से हटकर कठोर एवं तलस्पर्शी समालोचना के आधार पर महावीर को ही आप्त के रूप में स्वीकार किया गया है। __ वर्णनात्मक बत्तीसियों में सातवों जो वादकला का प्रतिपादन करती है, को वादोपनिषद् नाम दिया गया है। नवीं, वेदवाद नामक बत्तीसी में औपनिषदिक ब्रह्मतत्त्व का ऋग्वेद एवं श्वेताश्वतर उपनिषद् के आधार पर, वर्णन किया गया है। यह वर्णन कहीं-कहीं विरोध गर्भित भी है। १०वीं बत्तीसी में जिनोपदेश का वर्णन है जिसमें आर्त और रौद्र ध्यान के साथ-साथ शक्ल ध्यान का वर्णन किया गया है। किन्तु इसमें श्वेताश्वतरोपनिषद् एवं गीता में वर्णित आसन, प्राणायाम आदि प्रक्रियाओं का भी दिग्दर्शन है। यह बत्तीसी योगसूत्र के अपर और पर वैराग्य का भी पृथक्करण करती है।३४ ___ ग्यारहवीं न्यायदर्शन, तेरहवीं सांख्य, चौदहवीं वैशेषिक एवं पन्द्रहवीं बत्तीसी बौद्धों के शून्यवाद के मन्तव्यों की समीक्षा करती है। सांख्य के वर्णन में For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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