Book Title: Siddhsen Diwakar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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सिद्धसेन दिवाकर की कृतियाँ
स्पष्ट निरूपण करते हुए उनके गुण-दोषों पर भी सम्यक् प्रकाश डाला है और अन्त में अनेकान्त की स्थापना की है। अनादि में तात्त्विक प्ररूपणा किस प्रकार की जाय इसका निदर्शन करते हुए एवं अनेकान्त रूप जिनवचन की कल्याण कामना करते हुए सिद्धसेन ने ग्रन्थ का समापन किया है।
सन्मति के अतिरिक्त सिद्धसेन के अन्य ग्रन्थों द्वात्रिशद्वात्रिंशिका, न्यायावतार एवं कल्याणमंदिर स्तोत्र के समय को लेकर तथा सिद्धसेन दिवाकर उनके कर्ता हैं या नहीं? इस प्रश्न को लेकर अधिक विवाद खड़ा हुआ है परन्तु सन्मति उनकी रचना है इस विषय में किसी को कोई आपत्ति नहीं है, यह निर्विवाद है। परन्तु पण्डित जुगलकिशोर मुख्तार यह मानते हुए भी कि सन्मति सिद्धसेन दिवाकर की निर्विवाद कृति है, उन्हें पूज्यपाद के उत्तरवर्ती मानते हुए एवं उनका काल विक्रम की छठी शताब्दी२६ का तृतीय चरण निर्धारित करते हुए उन्हें दिगम्बर सिद्ध करने का प्रयास करते हैं,२७ जो कि समीचीन नहीं है। इस सम्बन्ध में उनका तर्क है कि सन्मति में ज्ञानदर्शनोपयोग के अभेदवाद की जो खास बात है वह दिगम्बर मान्यता के अधिक निकट है, एवं दिगम्बरों के युगपद्वाद पर से ही फलित होती है न कि श्वेताम्बरों के क्रमवाद से।'२८ इसलिए सिद्धसेन दिगम्बर सम्प्रदाय के हैं।
पण्डित मुख्तार ने सिद्धसेन को दिगम्बर सिद्ध करने के लिए अन्य तर्क भी दिए हैं। उनकी मान्यता है कि सन्मतिसूत्र का उल्लेख जिनसेन, हरिसेन, वीरसेन२९ आदि आचार्यों के द्वारा होने से वे दिगम्बर सम्प्रदाय के ही सिद्ध होते हैं, किन्तु श्री मुख्तार जी का यह तर्क ठीक नहीं हैं क्योंकि जिनसेन और हरिषेण जिन्होंने सिद्धसेन का उल्लेख किया है वे दोनों ही दिगम्बर परम्परा के न होकर यापनीय परम्परा के थे और उन्हीं प्रभावों के कारण षट्खण्डागम की टीका में उनका उल्लेख हुआ है, इससे सिद्धसेन के दिगम्बर परम्परा में होने की सिद्धि नहीं होती है। यदि आचार्य सिद्धसेन दिगम्बर परम्परा के होते तो उनके ग्रन्थों में स्त्री मुक्ति, केवलीभुक्ति या सर्वज्ञभुक्ति का खण्डन होना चाहिए था, पर ऐसा नहीं है। सम्भवतः इन्हीं विरोधों से अवगत होकर प्रो० ए०एन०उपाध्ये ने उन्हें यापनीय सिद्ध करने का प्रयास किया है।
अत: किन्हीं ठोस तर्कों के अभाव में ये सभी प्रयास अप्रामाणिक होने से दिगम्बर आचार्यों को पहले एवं श्वेताम्बर आचार्यों को बाद में प्रतिष्ठित करने की दृष्टि का ही परिचायक है।
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