Book Title: Siddhsen Diwakar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 75
________________ सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका से अलग किसी ग्रन्थ एवं बौद्ध दर्शन के वर्णन नागार्जुन के ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य विज्ञानवादी ग्रन्थों का समावेश किया गया लगता है। ४२ सोलहवीं बत्तीसी नियतिवाद से सम्बन्धित है एवं सत्रहवीं से बीसवीं तक की बत्तीसियां कोई स्पष्ट निर्देश नहीं करतीं फिर भी उनका कथ्य जैन दर्शन ही है यह बतलाने में सक्षम हैं। १८वीं शताब्दी में कर्त्ता ने अनुशासन (शिक्षा) करने के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण बातों की तरफ ध्यान आकर्षित किया है, जिसमें देश, काल, परम्परा, आचार्य, वय और प्रकृति मुख्य हैं। इसमें यथास्थान शैक्ष अर्थात् अध्येता के साथ-साथ, आचार तथा आसेवन परिहार आदि जैन पारिभाषिक शब्दों का भी प्रयोग मिलता है । उन्नीसवी बत्तीसी के प्रारम्भ में ज्ञानदर्शन चारित्ररूप मोक्षमार्ग का निर्देश एवं पश्चातवर्ती बत्तीसियों में षट्द्रव्य विषयक द्रव्यमीमांसा एवं सूक्ष्मज्ञान मीमांसा भी विवेचित है। ३६ बीसवीं बत्तीसी में सिद्धसेन ने महावीर का शासन कैसा है, इसे स्पष्ट करते हुए उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप सिद्धान्त को ही वर्धमान का शासन बतलाकर उसकी विवेचना की है । ३७ न्यायावतार जिसे २२वीं द्वात्रिंशिका के रूप में भी परिगणित कर लिया जाता है, ३८ वह एक स्वतन्त्रकृति है और इसमें मुख्यत: प्रमाण आदि या ज्ञानमीमांसा की चर्चा की गई है। इसमें जैनदृष्टि से पक्ष, साध्य, हेतु, दृष्टान्त हेत्वाभास आदि के लक्षणों के साथ नयवाद और अनेकान्तवाद के बीच अन्तर को भी स्पष्ट किया गया है। ये द्वात्रिंशद्वात्रिंशिकाएँ जिस क्रम से प्रकाशित हुई हैं, उसी क्रम से उनकी रचना नहीं हुई है । बाद में लेखकों ने अथवा पाठकों ने वह क्रम निश्चित किया होगा, ऐसा प्रतीत होता है। इन द्वात्रिंशिकाओं के परिमाण में न्यूनाधिक्य मिलता है। बत्तीस-बत्तीस के हिसाब से कुल ७०४ पद्य होना चाहिए, परन्तु उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओं में कुल ६९५ पद्य ही मिलते है । २१वीं द्वात्रिंशिका में एक पद्य अधिक (३३पद्य) एवं ८, ११, १५ और १९ वीं द्वात्रिंशिका में बत्तीस से भी कम पद्य हैं। ऐसा लगता है कि द्वात्रिंशिकाओं की यह कमोबेश संख्या उनके रचनासमय के अलग-अलग होने के कारण है । यही विचार पण्डित सुखलाल जी संघवी ने अपने 'सन्मतिप्रकरण' ३९ की प्रस्तावना में व्यक्त किए हैं। उनकी मान्यता है कि 'ये सभी बत्तीसियाँ सिद्धसेन के जैन दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात् ही लिखी गई हों, ऐसा नहीं कहा जा सकता । सम्भव है उन्होंने इनमें से कुछ बत्तीसियाँ पूर्वाश्रम में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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