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सिद्धसेन दिवाकर की कृतियाँ
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कौन स्तुतिरूप हैं और कौन-कौन स्तुति रूप नहीं हैं ५५ परन्तु पण्डित जी का यह कथन कुछ अधिक ग्राह्य नहीं लगता।
इस सन्दर्भ में एक तथ्य जो ध्यान देने योग्य है वह यह है कि मल्लवादी क्षमाश्रमण के द्वादशारनयचक्र पर न्यायागमनानुसारिणी नामक वृत्ति के लेखक सिंहसूरि गणिक्षमाश्रमण, जिनका समय ई०सन् सातवीं शताब्दी माना जाता है, ने अपने ग्रन्थ में सिद्धसेन दिवाकर की नाम सहित तीन द्वात्रिंशिकाओं (३/८,४/२२ एवं २०/४)१६ को उद्धृत किया है; अत: स्तुतिपंचक में आने वाली इन दो द्वात्रिंशिकाओं के अतिरिक्त २०वी द्वात्रिंशिका भी सिद्धसेन दिवाकर की ही है, यह सिद्ध हो जाता है।
इस प्रकार द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका के सम्यक् अनुशीलन से लगता है कि प्रथम पांच द्वात्रिंशिकाएँ जो स्तुतिरूप हैं एवं जिनमें सिद्धसेन नाम का सूचन भी मिलता है, तथा ११वीं और २०वी सन्मतिकार सिद्धसेन की कृतियाँ हैं; २१वी द्वात्रिंशिका निश्चित रूप से किसी दूसरे सिद्धसेन की कृति है, ये सिद्धसेन कौन हो सकते हैं, यह प्रश्न विचारणीय है।
नाम की आंशिक समरूपता के आधार पर यह सिद्धसेन, सिद्धर्षि (ई०सन् ८७०-९२०) ही हैं, ऐसा कहा जा सकता है, या एक विकल्प यह भी हो सकता है, क्योंकि श्वेताम्बर परम्परा ३२ पद्यों वाली न्यायावतार को २२वी द्वात्रिंशिका के रूप में परिगणित करती है जिस पर सिद्धर्षि ने एक टीका भी लिखी है। सम्भव है सिद्धर्षि का ही नाम सिद्धसेन के रूप में २१वीं द्वात्रिंशिका पर चढ़ गया हो जो बाद की रचना होने पर भी द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका की में परिगणित हो गई हो, जैसा कि पण्डित सुखलालजी आदि विद्वान् मानते हैं कि सभी बत्तीसियाँ एक साथ ही रचित नहीं है, बल्कि बाद में काफी गोलमाल हुआ है।५७
किन्तु २१वी द्वात्रिंशिका के कर्ता यदि सिद्धर्षि को माना जाय, कि जिस सिद्धसेन का सूचन उसमें मिलता है वे सिद्धर्षि (१०वीं शती) ही हैं तो प्रभावकचरित का प्रमाण इसमें बाधक बनता है, जिसमें सिद्धसेन का वर्णन वृद्धवादिसूरिचरितम् (८) के अन्तर्गत एवं सिद्धर्षि के वर्णन के लिए एक अलग प्रबन्ध (१४वां प्रबन्ध) की योजना प्रबन्धकार ने की है। यदि सिद्धर्षि ही सिद्धसेन होते तो उन्हें दो अलग-अलग प्रबन्धों में न रखकर, एक ही प्रबन्ध में रखा गया होता एवं जहाँ द्वात्रिंशद्वात्रिशिकाओं की प्रबन्धगत चर्चा है उनमें भी सिद्धर्षि ही सिद्धसेन हैं ऐसा उल्लेख किया गया होता, परन्तु ऐसा नहीं है।
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