Book Title: Siddhsen Diwakar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 85
________________ ५२ सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व साध्याविनाभुवो हेतोर्वचो यत् प्रतिपादकम् । परार्थमनुमानं तत् पक्षादि वचनात्मकम् ।। --- - न्यायावतार, १३। २. दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय की कारिका १.२३ न्यायावतार की २८वीं कारिका में अन्तर्भूत है । ९०४ ३. न्यायावतार की १०वीं एवं २९वीं कारिका का प्रथम पाद कुछ परिवर्तनों के साथ दिङ्नाग से ही गृहीत हैं । १०५ "अतः न्यायावतार दिङ्नाग ( ई० सन् ४८० - ५४० ) के बाद की रचना होने से सिद्धसेन दिवाकर की कृति नहीं हो सकती । १०६ ज्ञातव्य है कि जैनदर्शन के लब्ध प्रतिष्ठ विद्वान् पद्मभूषण पं० दलसुखभाई मालवणिया ने अपने उक्त मत में वर्तमान साक्ष्यों के आधार पर परिवर्तन कर लिया है एवं न्यायावतार के सिद्धसेन की कृति मानने से अपने पूर्वमत में स्वतः संसोधन करते हुए उसे सिद्धर्षि की रचना माना है । १०७ उपर्युक्त तर्कों की समीक्षा करने पर न्यायावतार के कर्ता के सम्बन्ध में कुछ तथ्य उभरकर सामने आते हैं जो इस प्रकार हैं प्रथम तो यह कि धर्मकीर्ति के पहले बौद्ध-न्याय में 'अभ्रान्त' पद नहीं था और प्रत्यक्ष प्रमाण के सन्दर्भ में 'अभ्रान्त' पद का प्रयोग उनकी नयी योजना है, यह कथमपि तर्कसंगत नहीं है। प्रो०टूची के कथन के आधार पर हमने धर्मकीर्ति पूर्व बौद्ध-न्याय का अनुशीलन किया और पाया कि 'अभ्रान्त' पद का प्रयोग धर्मकीर्ति के पहले असंग और उनके गुरु मैत्रेय की कृतियों में अनेकशः हुआ है। अपनी कृति 'अभिधर्मसमुच्चय' के सांकथ्य परिच्छेद में प्रत्यक्ष की परिभाषा देते हुए असंग ने लिखा है Jain Education International प्रत्यक्षं स्वसत्प्रकाशाभ्रान्तोऽर्थः । १०८ अर्थात् प्रत्यक्ष स्वसत्प्रकाश एवं अभ्रान्त अर्थ है । असंग बसुबन्धु के बड़े भाई थे जिनका समय ई० सन् ३१६- ३९६ है । वसुबन्धु जब पैदा हुए थे तो असंग को बौद्धधर्म में दीक्षित हुए एक वर्ष हो चुके थे । १०९ अत: असंग का समय ३०१ ई० सन् के आस-पास निश्चित किया जा सकता है । अब यदि असंग प्रत्यक्ष के लक्षण में 'अभ्रान्त' पद का प्रयोग करते हैं, तो यह कैसे कहा जा सकता है कि धर्मकीर्ति के पहले 'अभ्रान्त' पद बौद्ध न्याय में ज्ञात नहीं था और धर्मकीर्ति की यह अपनी नयी योजना है। यदि असंग ने 'अभ्रान्त' For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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