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सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
'कल्पनापोढं' विशेषण का खण्डन किया है वहीं उनके 'अभ्रान्त' विशेषण को प्रकारान्तर से स्वीकार भी किया है।
इसी प्रकार धर्मकीर्ति ने अपने न्यायबिन्दु में अनुमान का लक्षण बताते हुए 'त्रिरूपाल्लिङ्गाद्यदनुमेये ज्ञानं तदनुमानं'९२ कहा है। इसमें 'त्रिरूपात' पद के द्वारा लिंग को त्रिरूपात्मक बताकर अनुमान के साधारण लक्षण को एक विशेषरूप दिया गया है। यहाँ अनुमान को 'भ्रान्त' या 'अभ्रान्त' ऐसा कोई लक्षण नहीं दिया गया। धर्मोत्तर ने 'न्यायबिन्दु' की टीका में प्रत्यक्ष लक्षण की व्याख्या एवं उसमें प्रयुक्त हुए अभ्रान्त विशेषण की उपयोगिता बतलाते हुए ‘भ्रान्तंानुमानं'९३ इस वाक्य के द्वारा अनुमान को भ्रान्त प्रतिपादित किया है। पण्डित जुगलकिशोर जी के अनुसार ऐसा प्रतीत होता है कि सिद्धसेन ने अनुमान का लक्षण करते हुए सबको लक्ष्य में रखकर ‘साध्याविनाभुनो लिङ्गात्साध्यनिश्चायकं स्मृतम् अनुमानं'९४ कहा है और इसमें लिंग का साध्याविनाभावी ऐसा एक रूप देखकर धर्मकीर्ति के त्रिरूप का पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व तथा विपक्षासत्व रूप का निरसन किया है। साथ ही 'तदभ्रान्तं समक्षवत्' इस वाक्य की योजना द्वारा अनुमान को प्रत्यक्ष की तरह अभ्रान्त कहकर बौद्धों की उसे भ्रान्त प्रतिपादन करने वाली उक्त मान्यता का खण्डन भी किया है।९५ इसी तरह ‘न प्रत्यक्षमपिभ्रान्तं प्रमाणत्वविनिश्चयात्' इत्यादि छठे पद्य में उन दूसरे बौद्धों की मान्यता का खण्डन किया है जो प्रत्यक्ष को अभ्रान्त नहीं मानते। यहाँ लिंग के एकरूप का और फलत: अनुमान के उक्त लक्षण का आभारी पात्रस्वामी का वह हेतुलक्षण है जिसे न्यायावतार की २२वीं कारिका में 'अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षण- मीरितम्' इस वाक्य के द्वारा उद्धृत भी किया गया है और जिसके आधार पर पात्रस्वामी ने बौद्धों के विलक्षण हेतु का कदर्थन किया था तथा "त्रिलक्षणकदर्शन' नाम का एक स्वतन्त्र ग्रन्थ ही रच डाला था।९६ ____ धर्मकीर्ति का समय ई० सन् ६३५-६५० अर्थात् विक्रम की सातवीं शताब्दी का चतुर्थचरण, धर्मोत्तर का समय ई०सन् ७२५-७५० अर्थात् विक्रम की ८वीं शताब्दी और पात्रस्वामी का समय विक्रम की सातवीं शताब्दी माना जाता है। अत: यदि न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन हैं तो उनका समय इन आचार्यों के बाद अर्थात् विक्रम की ८वीं शती होना चाहिए। इसी आधार पर प्रो०हर्मन जैकोबी ७ एवं पी० एल०वैद्य८ तथा पण्डित जुगलकिशोर मुख्तार ९ ने सिद्धसेन को धर्मकीर्ति के पश्चात् अर्थात् सातवीं शताब्दी में रखा है।
पण्डित सुखलाल जी संघवी ने अपने ग्रन्थ सन्मतिप्रकरण की प्रस्तावना में सिद्धसेन दिवाकर को धर्मकीर्ति के पश्चात् रखने के मत को अयुक्तियुक्त बतलाया
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