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सिद्धसेन दिवाकर और उनका समय
किया है। इस तथ्य के आधार पर उनका समय आठवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध से तो पहले मानना ही होगा। - जैन आगमों पर चूर्णि नाम की प्रसिद्ध प्राकृत टीकाएँ हैं जिनका समय विक्रम की चौथी शताब्दी से लेकर आठवीं शताब्दी तक का है। विक्रम सं० ७३३ अर्थात् ई०६७६ में जिनदासगणिमहत्तर द्वारा रचित निशीथसूत्र की चूर्णि में सन्मति और उसके कर्ता सिद्धसेन के बारे में तीन उल्लेख मिलते हैं
(१) प्रथम उल्लेख में कहा गया है कि सिद्धिविनिश्चिय, सन्मति आदि दर्शनप्रभावक शास्त्रों को सीखने वाला साधु कारणवश यदि अकल्पित वस्तु का सेवन करे तो उसे अकल्पित सेवन के लिए प्रायश्चित्त नहीं करना पड़ता।
(२) दूसरे उल्लेख का तात्पर्य यह है कि 'दर्शन प्रभावक शास्त्र में विशारद एवं उन्तमार्थ (अनशन) प्राप्त साधु पर भी सूत्र का विच्छेद न हो, इस दृष्टि से सीखने जाना पड़े तो जाने की अनुमति है। ११ ।।
(३) तीसरे उल्लेख में कहा गया है कि जैसे-सिद्धसेन आचार्य ने 'योनिप्राभृत' आदि द्वारा घोड़े बनाए।१२
इन तीनों उल्लेखों में मुख्य रूप से दो बातें स्पष्ट परिलक्षित होती हैं-एक तो यह कि सन्मतितर्क जिनदासगणिमहत्तर के समय में दर्शनप्रभावक ग्रन्थों में गिना जाता था और यहाँ तक कि उसका अभ्यासी कारणवश दोष सेवन करे तो भी वह प्रायश्चित्त भागी का नहीं समझा जाता था और सन्मति का अभ्यासी श्रमण शास्त्रग्रहणार्थ विरोधी राज्य में भी जा सकता था। दूसरी बात जो स्पष्ट होती है वह यह कि जिनदासगणिमहत्तर के समय में किसी सिद्धसेन आचार्य के द्वारा मन्त्र-शक्ति से घोड़ी के सर्जन की दन्तकथा मान्य हो चुकी थी।
सिद्धसेन की अश्वसर्जक१३ रूप में प्रसिद्धि और सन्मति की दर्शनप्रभावक ग्रन्थों में ख्याति यह स्पष्ट कर देती है कि सिद्धसेन जिनदास से भी पहले हए हैं। परन्तु कितने पहले हुए यह प्रश्न विचारणीय रहता है। प्रस्तुत चूर्णि जिस भाष्य पर है, वह भाष्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण (सातवीं शती उत्तरार्ध) का है। जिनभद्र एवं उनकी आगमिक परम्परा के उत्तराधिकारी जिनदास, जिनभद्र की प्रतिस्पर्धी दूसरी परम्परा के विद्वान् का तथा उनकी कृतियों का. अतिमानपूर्वक उल्लेख करते हैं। इस आधार पर यह फलित होता है कि सिद्धसेन जिनभद्र के समकालीन तो रहे ही होंगे। जिनदास के द्वारा सिद्धसेन की कृतियों का आदरपूर्वक उल्लेख करने की बात यह दर्शाती है कि जिनदास एवं सिद्धसेन में कम से कम दो सौ वर्ष का अन्तर
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