Book Title: Siddhsen Diwakar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 42
________________ सिद्धसेन दिवाकर और उनका समय मान लिया, इसलिए उन्हें इन वादों के क्रम विकास को समझने में भ्रान्ति हुई। आदरणीय मुख्तार जी का यह कथन अनुचित प्रतीत होता है क्योंकि क्या पण्डित सुखलाल जी इतने अनभिज्ञ थे कि वे प्रथम भद्रबाहु का समय विक्रम की दूसरी शताब्दी मानते? भद्रबाहु प्रथम तो महावीर के छठे क्रम के आचार्य हैं, और वे तो विक्रम के २०० वर्ष से अधिक पूर्व हो चुके हैं। क्या पण्डित जी को इन ४०० वर्षों का अन्तर समझ में नहीं आया था। युगपद्वाद और क्रमवाद कब अस्तित्व में आ गये थे इसके लिए स्वयं मुख्तार जी नियमसार का उद्धरण उपस्थित करते हैं। नियमसार में स्पष्ट रूप से युगपद्वाद का मंडन किया गया है,३१ एवं कुन्दकुन्द को तो हमारे दिगम्बर परम्परा के विद्वान् ईसा की प्रथम शताब्दी से तीसरी शताब्दी के बीच रखते हैं। इस प्रकार उनके अनुसार तो युगपद्वाद और क्रमवाद दोनों ही दूसरी-तीसरी शताब्दी के मध्य आ गए थे, यह सिद्ध हो जाता है। फिर चौथी-पाँचवीं शताब्दी के सिद्धसेन यदि उसका समन्वय करते हैं तो इसमें आश्चर्य की बात ही क्या? आदरणीय मुख्तार जी एक ओर कहते हैं कि तीसरी और नवी द्वात्रिंशिका के जो कर्ता हैं, पूज्यपाद देवनन्दी से पहले हुए हैं, उनका समय विक्रम की पाँचवीं शताब्दी भी हो सकता है, किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन भी पूज्यपाद देवनन्दी से पहले या विक्रम की पाँचवी शताब्दी में हुए हैं। दूसरी ओर वे अभेदवाद के पुरस्कर्ता को नियुक्तिकार भद्रबाहु मान लेते हैं और उन्हें छठी शताब्दी में रखते हैं, उन्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि कल्पसूत्र की स्थविरावली के अनुसार दूसरे आर्यभद्र जो नियुक्तियों के कर्ता भी हैं, वे धनगिरि और शिवभूति के समकालीन हैं, जिनका काल विक्रम की दूसरी शताब्दी है। क्रमवाद व अभेदवाद का खण्डन अकलंक के तत्त्वार्थवार्तिक में होने से केवल इतना ही सिद्ध होता है कि अकलंक सिद्धसेन के बाद हुए हैं। यदि पूज्यपाद की वृत्तियों में इन वादों की कोई चर्चा नहीं है तो इसका अर्थ यह नहीं हो जाता कि सिद्धसेन परवर्ती हैं। पण्डित जुगलकिशोर जी मुख्तार३२ ने सिद्धसेन के समय को नीचे ले जाने के लिए एक तर्क यह दिया है कि मुनि जम्बूविजय ने मल्लवादी के नयचक्र के अध्ययन के आधार पर यह लिखा है कि मल्लवादी ने अपने नयचक्र में पद-पद पर वाक्यपदीय ग्रन्थ का उपयोग ही नहीं किया है बल्कि उसके कर्ता भर्तृहरि का नामोल्लेख एवं उनके मत का खण्डन किया है। श्री मुख्तार जी ने भर्तृहरि का समय इत्सिंग के यात्रा विवरण के आधार पर ई०सन् ६५० मान लिया है और इस आधार पर उन्होंने निष्कर्ष निकाल लिया कि मल्लवादी, जिनभद्र के पूर्ववर्ती नहीं कहे जा सकते, वे ८वीं ९वीं शताब्दी के विद्वान् हो सकते हैं। किन्तु यह उनका श्वेताम्बर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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