Book Title: Siddhsen Diwakar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 44
________________ सिद्धसेन दिवाकर और उनका समय ११ हुआ, हरिभद्र के 'अनेकान्तजयपताका' में 'उक्तं च वादिमुख्येन मल्लवादिना' ३६ जैसे शब्दों का स्पष्ट प्रयोग देखकर वे हरिभद्र को भी ९वीं शताब्दी के अन्त में ले जाना चाहते हैं, परन्तु मुनि जिनविजयजी ने विस्तृत विवेचना करके यह निष्कर्ष निकाला है कि हरिभद्र किसी भी स्थिति में ८वीं शताब्दी के बाद के आचार्य नहीं हैं । ३७ वस्तुतः सिद्धसेन के समय में जो भ्रान्ति खड़ी की जा रही है उसका मूल कारण यह है कि सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन दिवाकर तत्त्वार्थभाष्य के टीकाकार सिद्धसेनगणि और न्यायावतार एवं उसकी टीका के कर्ता सिद्धर्षि को एक दूसरे से मिला दिया गया है। अतः सिद्धसेन का समय वि० की चतुर्थ पांचवीं शताब्दी मानना ही उचित है, उन्हें चौथी - पांचवीं शताब्दी का विद्वान् मानने पर उनकी समकालिकता चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य से भी सिद्ध हो जाती है। सामान्यतया यह तर्क दिया जाता है कि पूज्यपाद देवनन्दी ने सन्मतिसूत्र के ज्ञान-दर्शन- उपयोग के अभेदवाद की चर्चा नहीं की जबकि अकलंक ने तत्वार्थवार्तिक में उसकी चर्चा की और उसकी तर्कपूर्ण समीक्षा भी की। यदि पूज्यपाद के पूर्व सन्मतिसूत्र रचा गया होता तो पूज्यपाद अकलंक की तरह उसके अभेदवाद की मीमांसापूर्वक ही युगपद्वाद का प्रतिपादन करते । अतः सिद्धसेन का समय विक्रम की छठी शताब्दी और अकलंक का समय विक्रम की सातवीं शताब्दी के मध्य का अर्थात् वि० सं०६२५ के आसपास का होना चाहिए। इसी क्रम में आदरणीय मुख्तार जी ने सन्मतिकार सिद्धसेन को भी पूज्यपाद देवनन्दी के परवर्ती सिद्ध करने का प्रयास किया है। उनका तर्क है कि- 'पूज्यपाद से पहले उपयोगद्वय के क्रमवाद तथा अभेदवाद के कोई पुरस्कर्ता नहीं हुए हैं, होते तो पूज्यपाद अपनी सर्वार्थसिद्धि में सनातन से चले आये युगपवाद का प्रतिपादन करके ही नहीं रह जाते बल्कि उसके विरोधी वाद अथवा वादों का खण्डन जरूर करते परन्तु ऐसा नहीं है, और इससे यह स्पष्ट होता है कि पूज्यपाद के समय में केवली के उपयोग विषयक क्रमवाद तथा अभेदवाद प्रचलित नहीं हुए थे.... अभेदवाद का प्रतिस्थापन सिद्धसेन के द्वारा हुआ है' ३८ अतः सिद्धसेन पूज्यपाद के परवर्ती हैं। किन्तु जब पूज्यपाद जैनेन्द्रव्याकरण में सिद्धसेन का उल्लेख कर रहे हैं एवं तत्त्वार्थ की सर्वार्थसिद्धि नामक टीका के सप्तम अध्यायगत १३ वें सूत्र की टीका में सिद्धसेन दिवाकर के एक पद्य को उद्धृत करते हैं तो फिर वे उनके परवर्ती कैसे हो सकते हैं, पुन: उन्होंने अभेदवाद का खण्डन नहीं किया, इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि सिद्धसेन के अभेदवाद की स्थापना उसके बाद हुई होगी। हो सकता है कि उन्हें अभेदवाद एवं युगपदवाद में अधिक अन्तर न परिलक्षित हुआ हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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