Book Title: Siddhsen Diwakar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 60
________________ जीवन वृत्तान्त २७ आचार्य सिद्धसेन की जीवनी के सम्बन्ध में अनेक कथानक प्रबन्धों में आये हैं जो उनकी तर्कणाशक्ति, प्रखर वैदुष्य एवं उनकी दार्शनिक प्रतिभा को स्पष्टतया रेखांकित करते हैं एक कथानक के अनुसार अवन्ती के प्रकाण्ड विद्वान् एवं विविध दर्शनों पर एकाधिकार रखने वाले सिद्धसेन को अपनी विद्वता पर बहुत अभिमान था। वे दृढ़प्रतिज्ञ हो चुके थे कि जो उन्हें शास्त्रार्थ में हरा देगा वे उसका शिष्यत्व स्वीकार कर लेंगे। वादकुशल, वृद्धवादी के वैदुष्य की उन दिनों सर्वत्र चर्चा प्रसरित थी। एक बार वे उज्जयिनी (इसके अवन्ती एवं विशाला नाम भी मिलते हैं) की ओर विहार किये, मार्ग में उनका परिचय सिद्धसेन से हुआ। सिद्धसेन उनकी विद्वता की चर्चा सुन चुके थे, अतएव उन्होंने प्रस्ताव रखा की बहुत समय से वादगोष्ठी करने का मेरा संकल्प है, आप उसे पूरा करें। आचार्य वृद्धवादी, वादगोष्ठी विद्वद्मण्डली के सम्मुख करना चाहते थे परन्तु उत्सुक सिद्धसेन के आग्रह पर गोपालकों की मध्यस्थता में आचार्य ने शास्त्रार्थ करना स्वीकार कर लिया। शास्त्रार्थ प्रारम्भ करते हुए सिद्धसेन ने अपनी सानुप्रास, संस्कृत भाषा में 'सर्वज्ञ नहीं है' ऐसा पूर्वपक्ष करके उसे स्थापित किया। गोपालकों को उनका एक भी शब्द आत्मसात नहीं हो सका। वृद्धवादी के पूछने पर कि सिद्धसेन ने क्या कहा, गोपालकों ने कुछ भी न समझ पाने की असमर्थता व्यक्त की। वृद्धवादी ने अपनी ओजपूर्ण किन्तु सुबोधगम्य मधुर भाषा में "सर्वज्ञसिद्धि' पर वक्तव्य देते हुए कहा कि इनका कहना है कि 'जिन नहीं है' क्या यह सत्य है? गोपालकों ने कहा कि हमारे गाँव में एक जिन चैत्य है उनमें वीतराग सर्वज्ञ विद्यमान हैं। जिन नहीं है, ऐसा कहने वाला यह ब्राह्मण मृषावादी है। तदनन्तर अपनी सार्वजनीन शैली में आचार्य वृद्धवादी ने युक्तिपुरस्सर सर्वज्ञत्व को प्रमाणित किया। सर्वज्ञत्व सिद्धि के बाद वे कर्णप्रिय घिन्दणी छन्द में बोले. नवि मारियइ नवि चोरियइ परदारह गमणुनिवारयइ। . थोवाथोवं दाइयइ सग्गि टुकुटुकु जाइयइ ।। -प्रबन्धकोश-६। .. अर्थात् हिंसा न करने से, चोरी न करने से, परदारा सेवन न करने से एवं शुद्ध दान से व्यक्ति स्वर्ग पहुँच जाता है। गोपालक वृद्धवादी की जय-जय का उद्घोष करने लगे सिद्धसेन ने अपनी पराजय स्वीकार करते हुए, अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार वृद्धवादी से अपना शिष्य बनाने का आग्रह किया। वृद्धवादी ने उन्हें अपना शिष्य बनाया एवं उनका दीक्षा नाम 'कुमुदचन्द्र' रखा। कुमुदचन्द्र शीघ्र ही जैन सिद्धान्तों का पारगामी हो गया। जैनशास्त्र की सार्वभौम एवं व्यापक प्रभावना शिष्य कुमुदचन्द्र में सम्भव है, ऐसा मानकर वृद्धवादी ने विद्वान् सिद्धसेन को आचार्य पद दे कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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