Book Title: Siddhsen Diwakar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 63
________________ ३० सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व मैंने आपकी अवज्ञा की है अतः क्षमा करें'। यह सुनकर वृद्धवादी ने कहा 'मैंने तुझे जैन-सिद्धान्तों का सम्पूर्ण पान कराया है। मन्द जठराग्नि वाले को रसपूर्ण भोजन की भांति यदि तुझे ही यह सिद्धान्त नहीं पच सका तो फिर दूसरे सर्वथा अल्पसत्व वाले जीवों की बात ही क्या? । सिद्धसेन के प्रायश्चित्त करने की इच्छा प्रकट करने पर आचार्य वृद्धवादी उन्हें योग्य प्रायश्चित्त देकर, अपने आसन पर बिठाकर स्वर्ग की ओर प्रयाण किये। आचार्य सिद्धसेन संस्कृत के लब्धख्याति विद्वान् थे। एक बार उन्होंने सम्पूर्ण आगम को संस्कृत में अनूदित करने का अपना विचार संघ को सुनाया। संघ के अगुओं ने कहा 'आप प्राकृत आगम का संस्कृत में उल्था करने के विचार एवं वचन से बहुत दूषित हुए हैं, स्थविर इस दोष का शास्त्र द्वारा प्रायश्चित्त जानते हैं। स्थविरों ने कहा कि इस दोष की शुद्धि के लिए आपको पारांचिक प्रायश्चित्त करना चाहिए।१८ संघ के इस अन्तर्विरोध के कारण आचार्य सिद्धसेन को मुनिवेश बदलकर बारह वर्ष तक गण से बाहर रहने का कठोर दण्ड मिला। इस पारांचिक नामक प्रायश्चित्त को वहन करते समय आचार्य सिद्धसेन के लिए एक अपवाद था कि बारह वर्ष की इस अवधि में उनसे जैन शासन की प्रभावना का कार्य सम्पादित हो सका तो दण्डकाल की मर्यादा से पूर्व भी उन्हें संघ में सम्मिलित किया जा सकता है।१९ संघमुक्त सिद्धसेन निर्धारित समय के पाँच वर्ष पूर्व अर्थात् सातवें वर्ष में विहरण करते हुए अवन्ती आये। अवन्ती नरेश विक्रमादित्य की सभा में पहुँचकर उन्होंने उनकी स्तुति में चार श्लोक कहा।२० स्तुति सुनकर प्रसत्र राजा ने सदा के लिए उन्हें अपनी सभा में रख लिया। एक दिन सिद्धसेन राजा के साथ शिवमन्दिर में गये। शिवप्रतिमा को बिना प्रणाम किये ही मन्दिर के दरवाजे से लौटते हुए दिवाकर से ऐसा करने का कारण पूछने पर, उन्होंने कहा हे राजन्! यह देव मेरे नमस्कार को सहन नहीं कर पायेगा। विक्रमादित्य ने कहा 'चलें आप नमन करें, क्या होगा हम देखते हैं। अवन्ती नरेश की आज्ञा से शिवप्रतिमा के आगे बैठकर काव्यमयी भाषा में सिद्धसेन ने पार्श्वनाथ की स्तवना आरम्भ की। फलस्वरूप आचार्य सिद्धसेन द्वारा स्तुति काव्य के रूप में महान प्रभावक कल्याणमंदिरस्तोत्र का निर्माण हुआ। इस स्तोत्र के ग्यारहवें श्लोक का पाठ करते ही धरणेन्द्र नाम का देव उपस्थित हुआ और उसके प्रभाव से शिवलिंग में धुआँ निकलने लगा, दिन में भी अंधेरा छा गया, पुन: अग्नि की एक ज्वाला के साथ पार्श्वनाथ की एक प्रतिमा प्रकट हुई इस घटना से प्रभावित विक्रमादित्य ने बहुत बड़ा उत्सव कराकर सिद्धसेन का उज्जयिनी में प्रवेश कराया और जिन शासन की प्रभावना की। इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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