Book Title: Siddhsen Diwakar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 35
________________ सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व महाप्रभावशाली कवियों को अधिकाधिक रूप से हृदय में धारण करके अपनी वाणी को उत्तरोत्तर पुष्ट और शक्ति सम्पन्न बनाने में समर्थ होऊँ । २ इसके अतिरिक्त 'राजवार्तिक' के कर्ता भट्ट अकलंक (ई० सं०७२०-७८० ) 'सिद्धिविनिश्चय' के कर्त्ता अनन्तवीर्य (१०वीं शती), पार्श्वनाथचरित के कर्त्ता वादिराजसूरि (११वीं शती) स्याद्वादरत्नाकर के कर्त्ता वादिदेवसूरि आदि दिगम्बर विद्वानों एवं प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार के कर्त्ता वादिदेवसूरि ( ई०स० ११४३-१२२६), प्रभावकचरित के कर्त्ता प्रभाचन्द्राचार्य ( ई० सं०७९७-८०२), 'अममचरित' के रचनाकार आचार्य मुनिरत्नसूरि ( ई०स०१२२४) आदि श्वेताम्बर विद्वानों ने आचार्य सिद्धसेन के प्रतिभा की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। सिद्धसेन नाम के अनेक आचार्य जैनपरम्परा में हुए हैं। ' उनमें 'दिवाकर' पद विशेषण से विभूषित सिद्धसेन के इस पद विशेष का सर्वप्रथम उल्लेख श्वेताम्बर साहित्य में हरिभद्र सूरि ( ई० स०७४०- ७८५) के पंचवस्तुक' में हुआ है जिसमें उन्हें दुःषमाकालरूप रात्रि के लिये दिवाकर 'सूर्य' के समान होने से दिवाकर की आख्या को प्राप्त हुआ लिखा है। इसके बाद से ही यह विशेषण सिद्धसेन के लिये प्रचलित हुआ होगा। क्योंकि श्वेताम्बर चूर्णियों एवं मल्लवादी (ई० स०५२५-५७५) के द्वादशारनयचक्र जैसे प्राचीन ग्रन्थों में जहाँ सिद्धसेन का नामोल्लेख है, वहाँ 'दिवाकर' विशेषण का प्रयोग नहीं पाया जाता । हरिभद्र के बाद ११वीं शती के विद्वान् अभयदेवसूरि (१२वीं शती) ने सन्मति टीका के प्रारम्भ में उन्हें दुःषमाकालरात्रि के अंधकार को दूर करने वाले दिवाकर के अर्थ में अपनाया है। इसके अतिरिक्त विक्रम की १३वीं शताब्दी (१२५२) के ग्रन्थ अममचरित, १४वीं शती के 'समरादित्यकथा' एवं १२वीं, १३वीं शती के ही वादिदेवसूरिकृत 'स्याद्वादरत्नाकर' में सिद्धसेन का 'दिवाकर' विशेषण के साथ उल्लेख पाया जाता है । ' समय आचार्य सिद्धसेन का समय निर्विवाद नहीं हैं। उनका समय निश्चित करने के लिये तीन साधन उपलब्ध हैं- (१) उनकी कृतियाँ, (२) जैन परम्परा एवं (३) निश्चित समय वाले लेखकों द्वारा किये गये उल्लेख । इनमें हम अन्तिम साधन का प्रयोग सर्वप्रथम करेंगे — विक्रम की आठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में होने वाले आचार्य हरिभद्र ने अपने 'पंचवस्तु' मूल एवं टीका में 'सम्मइ' अथवा सन्मति का उल्लेख किया है और उसके कर्त्ता के रूप में दिवाकर के नाम का उल्लेख किया है, साथ ही उन्हें श्रुतकेवली जैसे विशेषण से भी अलंकृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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