Book Title: Siddhsen Diwakar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 38
________________ सिद्धसेन दिवाकर और उनका समय विक्रमादित्य पद से विभूषित किसी गुप्तवंशीय राजा के समकालीन होने का अनुमान किया है। जिससे सिद्धसेन का समय विक्रम की चौथी-पाँचवीं शताब्दी मानने का ही समर्थन होता है। जैन आगम में मुख्य आचार्यों की काल गणना के लिए जो पट्टावलियाँ उपलब्ध हैं, उनके आधार पर देखें तो वि० सं०१३३४ के प्रभाचन्द्र के प्रभावकचरित्र में सिद्धसेन दिवाकर की परम्परा विस्तार से दी है। विद्याधर आम्नाय में पादलिप्त कुल में स्कंदिलाचार्य हुए। मुकुन्द नामक एक ब्राह्मण उनका शिष्य हुआ जो बाद में वृद्धवादी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। सभी जैन परम्पराएँ सिद्धसेन दिवाकर को इसी वृद्धवादी का शिष्य मानती हैं। इस आधार पर जाँच करने से पता चलता है कि माथुरी आगम वाचना के प्रणेता स्कन्दिलाचार्य का समय वि०सं०३७० के आस-पास का होना चाहिए क्योंकि वीर निर्वाण सं०८४० अर्थात् विक्रम सम्वत् ३७० में वाचना हुई थी और चूँकि सिद्धसेन स्कंदिलाचार्य की दूसरी पीढ़ी में हैं, इसलिए इनका समय विक्रम की चौथी-पाँचवीं शताब्दी मानने में कोई बाधा नहीं आती है। पण्डित सुखलाल जी संघवी ने अपने एक लेख जो 'सिद्धसेनदिवाकरना समयनोप्रश्न' १९ नाम से भारतीय विद्या के तृतीय भाग (श्री बहादुर सिंह जी सिंघी स्मृति ग्रन्थ) में प्रकाशित हुआ है, में सिद्धसेन के समय को पांचवीं शताब्दी मानते हुए अपनी मान्यता के समर्थन में दो मुख्य प्रमाणों का उल्लेख किया है जो निम्न हैं-- (१) जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अपने ग्रन्थ 'विशेषावश्यकभाष्य' में जो विक्रम सम्वत् ६६६ में बनकर समाप्त हुआ और लघुग्रन्थ 'विशेषणवती' में सिद्धसेन दिवाकर के उपयोगाभेदवाद की तथा 'सन्मतितर्क' के टीकाकार मल्लवादी के उपयोग-योग-पदवाद की विस्तृत समालोचना की है। इससे तथा मल्लवादी के द्वादशारनयचक्र के उपलब्ध प्रतीकों में दिवाकर का सूचन मिलने और जिनभद्रगणि का सूचन न मिलने से मल्लवादी जिनभद्र से पूर्ववर्ती एवं सिद्धसेन मल्लवादी से भी पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। इस आधार पर मल्लवादी को यदि विक्रम की छठी शताब्दी के पूर्वाद्ध में मान लिया जाय तो सिद्धसेन का समय जो लगभग विक्रम की पांचवीं शताब्दी निर्धारित किया गया है, उचित है। (२) पूज्यपाद देवनन्दी (ई०सं०६३५-६८५) ने अपने जैनेन्द्रव्याकरण के 'वेत्तेसिद्धसेनस्य'२० इस सूत्र की व्याख्या में सिद्धसेन के मत विशेष का उल्लेख किया है जिसमें कहा गया है कि सिद्धसेन के मतानुसार अनुपसर्ग और सकर्मक विद् धातु से रेफ यार का आगम होता है। इस मान्यता का प्रयोग नवी द्वात्रिंशिका२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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