Book Title: Siddhsen Diwakar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 20
________________ भूमिका , केवलज्ञान सादि और अनन्त है, तो फिर क्रमवाद सम्भव नहीं होता है क्योंकि केवल ज्ञानोपयोग समाप्त होने पर ही केवल दर्शनोपयोग हो सकता है। वे लिखते हैं कि सूत्र की आशातना से डरने वाले को इस आगम वचन पर भी विचार करना चाहिए । १४ वस्तुतः अभेदवाद के माध्यम से वे उन्हें आगम में जो अन्तर्विरोध परिलक्षित हो रहा था, उसका ही समाधान कर रहे थे। वे आगमों की तार्किक असंगतियों को दूर करना चाहते थे और उनका यह अभेदवाद भी उसी आगमिक मान्यता की तार्किक निष्पत्ति है, जिसके अनुसार केवलज्ञान सादि किन्तु अनन्त है । वे यही सिद्ध करते हैं कि क्रमवाद भी आगमिक मान्यता के विरोध में है। (३) प्रो० उपाध्ये का यह कथन सत्य है कि सिद्धसेन दिवाकर का केवली के ज्ञान और दर्शन के अभेदवाद का सिद्धान्त दिगम्बर परम्परा के युगपदवाट के अधिक समीप है। हमें यह मानने में भी कोई आपत्ति नहीं है कि सिद्धसेन के अभेदवाद का जन्म क्रमवाद और युगपवाद के अन्तर्विरोध को दूर करने हेतु ही हुआ है। किन्तु यदि सिद्धसेन दिवाकर दिगम्बर या यापनीय होते तो उन्हें सीधे रूप में युगपद्वाद के सिद्धान्त को मान्य कर लेना था, अभेदवाद के स्थापना की क्या आवश्यकता थी? वस्तुतः अभेदवाद के माध्यम से वे एक ओर केलवज्ञान के सादि-अनन्त होने के आगमिक वचन की तार्किक सिद्धि करना चाहते थे, वहीं दूसरी ओर क्रमवाद और युगपवाद की विरोधी अवधारणाओं का समन्वय भी करना चाहते थे। उनका क्रमवाद और युगपवाद के बीच समन्वय का यह प्रयत्न स्पष्ट रूप से यह सूचित करता है कि वे दिगम्बर या यापनीय नहीं थे । यहाँ यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि यदि सिद्धसेन ने क्रमवाद की श्वेताम्बर और युगपदवाद् की दिगम्बर मान्यताओं का समन्वय किया है, तो उनका काल सम्प्रदायों के अस्तित्व के बाद होना चाहिए। इस सम्बन्ध में हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि इन विभिन्न मान्यताओं का विकास पहले हुआ है और बाद में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया में किसी सम्प्रदाय विशेष ने किसी मान्यता विशेष को अपनाया है। पहले मान्यताएँ अस्तित्त्व में आयीं और बाद में सम्प्रदाय बने । युगपवाद भी मूल में दिगम्बर मान्यता नहीं है, यह बात अलग हैं कि बाद में दिगम्बर परम्परा ने उसे मान्य रखा है। युगपवाद का सर्वप्रथम निर्देश श्वेताम्बर कहे जाने वाले उमास्वाति के तत्त्वार्थधिगमभाष्य में है । १५ सिद्धसेन के समक्ष क्रमवाद और युगपदवाद दोनों उपस्थित थे। चूंकि श्वताम्बरों ने आगम मान्य किए थे इसलिए उन्होंने आगमिक क्रमवाद को मान्य किया । दिगम्बरों को आगम मान्य नहीं थे अतः उन्होंने तार्किक युगपद्वाद को प्रश्रय दिया । अतः यह स्पष्ट है कि क्रमवाद एवं युगपदवाद की ये मान्यताएँ साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के पूर्व की हैं इस प्रकार युगपदवाद और Jain Education International IX For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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