Book Title: Siddhsen Diwakar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 25
________________ XIV सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व वे उस उत्तर भारतीय निर्ग्रन्थ धारा के विद्याधर कुल में हुए हैं, जिसे श्वेताम्बर आचार्य अपनी परम्परा का मानते हैं, अत: वे श्वेताम्बरों के पूर्वज आचार्य हैं। ___ इसी प्रकार तीसरा प्रश्न 'न्यायावतार' के कृतित्व के सन्दर्भ में है। इस सम्बन्ध में मेरे और डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय के मन्तव्य में स्पष्टत: मतभेद हैं। असंग के ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से 'अभ्रान्त' पद मिल जाने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि न्यायावतार जैन न्याय का प्रथम ग्रन्थ होने के नाते आचार्य सिद्धसेन दिवाकर की ही रचना है। इस सम्बन्ध में मेरा तर्क निम्न है न्यायावतार, सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन की कृति है या नहीं, यह एक विवादास्पद प्रश्न है। इस सन्दर्भ में श्वेताम्बर विद्वान् भी मतैक्य नहीं रखते हैं। पं०सुखलाल जी, पं० बेचरदास जी एवं पं० दलसुख मालवणिया ने न्यायावतार को सिद्धसेनकी कृति माना है, किन्तु एम०ए० ढाकी आदि कुछ श्वेताम्बर विद्वान् उनसे मतभेद रखते हुए उसे सिद्धर्षि की कृति मानते हैं। डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय ने प्रस्तुत कृति में इस प्रश्न की विस्तृत समीक्षा की है तथा प्रो० ढाकी के मत का समर्थन करते हुए न्यायावतार को सिद्धसेन दिवाकर की कृति न मानते हुए इसे सिद्धर्षि की कृति माना है। किन्तु कुछ तार्किक आधारों पर मेरी व्यक्तिगत मान्यता यह है कि न्यायावतार भी सिद्धसेन की कृति है। प्रथम तो यह कि न्यायावतार भी एक द्वित्रिंशिका है और सिद्धसेन ने स्तुतियों के रूप में द्वित्रिंशिकाएँ ही लिखी हैं। उनके परवर्ती आचार्य हरिभद्र ने अष्टक, षोडशक एवं विशिंकायें तो लिखीं किन्तु द्वात्रिंशिका नहीं लिखी। दूसरे न्यायावतार में आगम युग के प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों की ही चर्चा हई है, दर्शनयुग में विकसित जैन परम्परा में मान्य स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क की प्रमाण के रूप में मूल ग्रन्थ में कोई चर्चा नहीं है जबकि परवर्ती सभी श्वेताम्बर एवं दिगम्बर आचार्य एवं न्यायावतार के टीकाकार सिद्धर्षि स्वयं भी इन प्रमाणों की चर्चा करते हैं। यदि सिद्धर्षि स्वयं ही इसके कर्ता होते तो कम से कम एक कारिका बनाकर इन तीनों प्रमाणों का उल्लेख तो मूलग्रन्थ में अवश्य करते। पुन: सिद्धर्षि की टीका में एक भी ऐसे लक्षण नहीं मिलते हैं, जिससे वह स्वोपज्ञ सिद्ध होती है। इस कृति में कहीं भी उत्तम पुरुष के प्रयोग नहीं मिलते। यदि यह उनकी स्वोपज्ञ टीका होती तो इसमें उत्तम पुरुष के कुछ तो प्रयोग मिलते। प्रत्यक्ष की परिभाषा में प्रयुक्त 'अभ्रान्त' पद तथा समन्तभद्र के रत्नकरण्ड श्रावकाचार के जिस श्लोक को लेकर यह शंका की जाती है कि न्यायावतार सिद्धसेन दिवाकर की कृति नहीं है— अन्यथा वे धर्मकीर्ति और समन्तभद्र के परवर्ती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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