Book Title: Siddhachakra Varsh 04 - Pakshik From 1935 to 1936
Author(s): Ashoksagarsuri
Publisher: Siddhachakra Masik Punarmudran Samiti

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Page 8
________________ हो या संघ में विसंवाद का प्रसंग हो आपने हमेशा जैन शासन की सुरक्षा के लिए अपना दायित्व निभाया है। तीर्थों के प्रश्न में भी अपने साहस का और अपूर्व बौद्धिक शक्ति का उन्होंने परिचय दिया. उस समय के अंग्रेज जजों ने भी उनकी बौद्धिक प्रतिमा की अनुमोदना की थी। बालदीक्षा आदि के प्रश्नों में भी अपने साहस का और नैतिक बल का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करके समाज को मार्गदर्शन दिया। । जैनशासक के प्रति जबरदस्त अनुराग उनके अन्दर रहा हुआ था। उनके स्वयं का जीवन ही एक ग्रन्थ जैसा था। उनके कार्य करने की शैली, सिद्धान्त निष्ठ जीवन और वाक्चार्तुयता ऐसे बहुत कुछ विशिष्ट गुण उनके जीवन से प्राप्त किये जा सकते हैं। चाहे कैसा भी प्रश्न हो उसका समाधान बिना विलम्ब के लोगों को मिल जाया करता था। लोग अपनी प्यास लेकर उनके पास आते थे वे उनकी वाणी से तृप्त होकर जाते थे। शासन के अनेक विध कार्यों में आपका अमूल्य योगदान जैन संघ भूल नहीं सकता। सिद्धचक्र मासिक के संकलन एवं संपादन-प्रकासन आदि कार्य के लिये विद्वान् स्पष्ट वक्ता सौजन्य मूर्ति आचार्यश्री अशोकसागर सूरीश्वरजी म.सा. धन्यवाद के अभिनंदन के पात्र हैं। उनके श्रम की मैं अनुमोदना करता हूं। _मुझे विश्वास है, इस सिद्धचक्र अंक के द्वारा लोग बहुत कुछ पा सकेंगे। उनका उपदेश लोग रंजन न होकर आगमिक रहस्यों का उद्घाटन करनेवाला होता था। शैली उनकी दार्शनिक थी। ऐसे प्रतिभा सम्पन्न महान आचार्य का शब्द शरीर (सिद्धचक्र अंक) का प्रकाशन लोगों के आत्मोत्थान का कारण बने यही मेरी शुभ अभिलाषा और मंगल कामना. आचार्य पद्मसागर सूरि 18-11-2001

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