Book Title: Shil Tarangini
Author(s): Jaykirtisuri, Somtilaksuri
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
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शीलोप
॥ ५३६ ॥
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स्तपोधनो गृहीत्वा खु निश्चितं निजशीलमाणिक्यं रक्षति, माणिक्यमिव शीतं सुरक्षितं क रोतीत्यर्थः ॥ ८ ॥ अथ मुनेरेव शीलरकोपायमाह
॥ मूलम् ॥ - एते मंताइ । पासठाइकुसंगमवि सययं । परिवजंतो नवबंज - गुति - गुत्तोच साहू || || व्याख्या - एकां ते विजने मंत्रादिकं वनिताभिः पर्यालोचं, प्रादिशब्दात्तत्संसक्ते स्थाने स्थातुं परिवर्जयन्, अन्यच्च पार्श्वस्थादिषु संगं सततं परिवर्जयन, नवब्रह्मचर्य गुप्तिगुप्तः साधुश्चरति, आदिशब्दादवसन्नकुशील संसक्तयथाबंदाः, तत्र वनिता - नायतनसंगो वर्जनीयः, यदागमः - खरामवि न खमं कानं । प्रलाययण सेवां सुविहि ॥ जं गंधं दोइ वर्णं । तग्गंधो मारुनु होइ ॥ १ ॥ पार्श्वस्थलक्षणं चेदं यदागमः - सो पासTags | सवे देते य होइ नायवो ॥ सङ्घमि नागदंसण - चरणाएं जोन पासंमि ॥ १ ॥ | देसंमि पासो । सिज्जायर हिडरायपिंडं च । नीयं च श्रग्गपिंरुं । भुंज निक्कारणे चेव ॥ २ ॥ प्रवसन्नादिलक्षणं सूत्राद् ज्ञेयं. नवब्रह्मगुप्तयस्त्विमाः - वसहिकहनि सिज्जिं दिग्र-कुतरक्की लिपीए ॥ अश्मायादारविनू - सलाय नवबंजचेरगुतीन ॥ १ ॥ इति नवगु
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वृति
|| ५३६ ॥

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