Book Title: Shil Tarangini
Author(s): Jaykirtisuri, Somtilaksuri
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 542
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsur Gyanmandir वृत्ति शीलोपर्लज्जाश्च कुलस्त्रियः॥१॥ इति, कुलदेशवयोऽनुरूपवेषधरा नाऽनुचितावरवतीत्यर्थः, अन- I मणशीला अत्यक्तस्वदेहलीका, यदाहुः-स्वगेहदेहलीं त्यक्त्वा । निस्त्रपा याति या बहिः॥ ॥५३ए ज्ञेया कुलस्थितोपात् । कुलटा कुलजापि सा ॥१॥ इति, त्यक्ताऽसतीसंगा, एवंविधा या नारी नवेत् सा श्लाध्येति गाथार्थः॥ १३ ॥ पुनस्तकुणानेवाह ॥ मूलम् ॥–देवगुरुपियरसुसराइ-एसु जना थिरा वरविवेत्रा ॥ कंताणुरत्तचित्ता । वि. रला महिला सुदढचित्ता ॥ १४ ॥ व्याख्या-देवगुरुपितृश्वसुरादिकेषु नक्ता, स्थिरा, वरविवेका, कांतानुरक्तचित्ता, नर्तृनता, सुदृढचित्ता, निजशीलरकणदृढा विरला महिला, आदि. शब्दाद्देवरत्नन॒मित्रादिपरिग्रहः, एवं विधा काचिनवेदित्यर्थः ॥ १४ ॥ महासतीनां शीलदाwमेवाद ॥ मूलम् ॥ निम्मलमहासईणं । सीलवयं खंमिन न सक्कोवि ॥ सक्के जेण ताणं । जीवान सीलमप्रहिनं ॥ १५ ॥ व्याख्या-निर्मलमहासतीनां शीलवतं खंमयितुं शक्रोऽपिन शक्तो न समर्थः, येन तासां जीवात्प्राणनाशाहीलमन्यधिकं, ताः शोलरक्षा ॥३॥ For Private And Personal

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