Book Title: Satya ki Khoj
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 10
________________ स्वकथ्य - विश्व के इतिहास में अब तक जो सत्य की खोज हुई है, वह पूरी की पूरी सत्य के उपायों की खोज है । उपाय की खोज किए बिना उपेय की खोज नहीं की जा सकती। सत्य उपेय है । ज्ञान उसका उपाय है। ___भगवान् महावीर के समसामयिक संजयवेलट्ठिपुत्त ने कहा था—मैं नहीं जानता कि वस्तु सत् है तो फिर मैं कैसे कहूं कि वह सत् है । मैं नहीं जानता कि वह असत् है तो फिर मैं कैसे कहूं कि वह असत् है। यह भारतीय दर्शन का संशयवाद है । पश्चिमी दर्शन में संशयवाद के प्रवर्तक ‘पाइरो' (३६५-२७५ ई० पू०) हैं । वे अरस्तू के समसामयिक थे। थेलीज से लेकर अरस्तू तक के दार्शनिकों के पारस्परिक मतभेदों को देखकर उन्होंने इस सिद्धान्त की स्थापना की कि मनुष्य के लिए वास्तविक सत्य तक पहुंचना संदिग्ध है। निर्विकल्प बुद्धि, सविकल्प बुद्धि और इन्द्रियानुभूति निश्चयात्मक ज्ञान उत्पन्न नहीं कर सकती। इसलिए सत्य को जानने का कोई उपाय नहीं है । कांट के अनुसार ज्ञान के लिए इन्द्रिय-संवेदन और बुद्धि-विकल्प-दोनों अनिवा हैं । ज्ञान और सत्य निश्चित होता है। सत्यता इन्द्रिय-संवेदन से आती है और निश्चय बुद्धि-विकल्प से आता है। भगवान् महावीर ने कहा-सत्य की उपलब्धि के दो उपाय हैं—अतीन्द्रिय ज्ञान और इन्द्रिय ज्ञान । अतिन्द्रिय ज्ञान योगी को होता है या विशेष परिस्थितियों में होता है । वह सामान्य नहीं है । सर्वमान्य ज्ञान इन्द्रिय-ज्ञान है। इसमें इन्द्रिय, मन और बुद्धि–तीनों समन्वित हैं । इन्द्रिय-संवेदन न सत्य होता है और न असत्य होता है। सापेक्ष होकर वह सत्य होता है और निरपेक्ष रहकर वह असत्य हो जाता है। बुद्धि-विकल्प न सत्य होता है और न असत्य होता है । सापेक्ष होकर वह सत्य होता है और निरपेक्ष रहकर वह असत्य हो जाता है । इन्द्रिय-ज्ञान और वचन-विकल्प की सत्यता सापेक्षता पर निर्भर है। इसलिए अनेकान्त का दूसरा नाम सापेक्षवाद है। हम द्रव्य के एक धर्म का प्रतिपादन करते हैं या कर सकते हैं। उस समय हम एक समस्या में उलझे होते हैं । हमारा बुद्धि-विकल्प और वचन-विकल्प द्रव्य के जिस स्वरूप का ग्रहण और प्रतिपादन कर रहा है, वह यदि वही हो तो इस एक धर्मवाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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