Book Title: Sarva Siddhanta Stava
Author(s): Jinprabhasuri, Somodaygani
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 11
________________ सर्वसिद्धान्तस्तव (सारानुवाद) मुनि वैराग्यरतिविजय अवचूर्णि मंगल कैवल्यलक्ष्मी की प्राप्ति हेतु ( श्रीविशेषाय) आवेश रहित मुनि (गतावेशाः) जिन का (यम्) एकाग्रता से (लयेन) ध्यान करते है, जिन का गौरव अति महान है ऐसे श्री वीर प्रभु स्तुति द्वारा जय रूपी लक्ष्मी के प्रदाता हो । प्रस्तावना I (१) पहले की बात है । आ. श्रीजिनप्रभसूरिजी को एक कठिन अभिग्रह था । वे रोज संस्कृत में एक नया स्तोत्र बनाकर ही निरवद्य आहार ग्रहण करते थे । उनको पद्मावती देवी प्रत्यक्ष थी । उसके वचनसंकेत से आगामी काल में तपागच्छ का अभ्युदय होने वाला है यह जानकर इन्होंने अपने नाम से अंकित सातसौ स्तोत्र तपागच्छ के आ. श्रीसोमतिलकसू. को भेट किये । आ. श्रीसोमतिलकसू. विद्यानुरागी थे। वे अपने शिष्यो और विद्यार्थीयों को आ. श्रीजिनप्रभसूरिजी के यमक, श्लेष, चित्रकाव्य, विभिन्न छन्द में रचे हुए स्तव पढ़ाते थे । सर्वसिद्धान्तस्तवः उनमें से एक है और बहुत उपयोगी है । गुरु को, श्रुतदेवता सरस्वती को तथा पंचम गणधर श्री सुधर्मा स्वामि को नमस्कार करके मैं श्रुतभक्ति से प्रेरित होकर जिनागमो की स्तुति करता हूँ | जिनागम अविरति, कषाय आदि अनेक प्रकार के पापो को रोकते हैं १. अवचूरि के मंगल श्लोक के प्रत्येक पाद का चौथा - पाँचवा अक्षर मिलाने पर अपने गुरु श्रीविशालराज गुरु यह नाम व्यक्त होता है । ध्यायन्ति श्रीविशेषाय, गतावेशा लयेन यम् । स्तुतिद्वारा जयश्रीदः, श्रीवीरो गुरुगौरवः ॥

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