Book Title: Saptopadhanvidhi
Author(s): Mangalsagar
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 40
________________ सप्तोपधान ॥ १८ ॥ हैं, ( सम्यग्दर्शनादि मोक्ष) मार्गके बतानेवाले हैं, ( संसारके दुःखोंसे भयभीत जनों को ) शरण देनेवाले हैं, बौधिरत्न ( सम्यक्स्व समकित ) के देनेवाले हैं ५, धर्मके देनेवाले हैं, धर्मका उपदेश करनेवाले हैं, धर्म के नायक (स्वामी) हैं, धर्मके सारथी हैं, चारगतिका अन्त करनेवाले उत्तम ( धर्मचक्रको धारण करनेवाले ) धर्मचक्रवर्ती हैं, ( उनको नमस्कार हो ) " ६ । तृतीय वाचना साडे आठ उपवासोंसे । (३) वाचनापाठ - "अप्पsिहयवरनाणदंसणधरीणं, विअह्छउमणं ७| जिणाणं जावयांणं, तिन्नाणं तारयणं, बुद्धाणं बोहणं, मुत्ताणं मोयगाणं ८। सव्यन्नृणं सव्वदैरिसीणं, सिव-मयल-मरुष-मणत मक्खय-मव्यायाह-मपुरावत्ति सिद्धिगड़-नामधेयं ठाणं संपत्तीणं, नमो जिणाणं जियभयाणं ९। जे य अईया सिद्धा, जे य भविस्संतिणागए काले । संपइ य वट्टमाणा, सव्वे तिविहेण वंदामि " १० । पद ९, संपदाएँ ३, गुरु १७, लघु १२६, सर्वाक्षर १४३ । ( अन्तिमगाथाके पद तथा संपदाने गिनती में नहीं लिये अक्षर गिनती में लिये हैं । अर्थ - किसी से प्रतिहत न हो ऐसे उत्तम ज्ञान और दर्शन अर्थात् केवल ज्ञान और केवल दर्शनके धारण करनेवाले हैं, जिनका छद्मस्थपना निवृत्त होगया है ७ | जिन-स्वयं रागद्वेपके जीतनेवाले हैं तथा भक्तजनोंको जितानेवाले हैं, ( संसारसमुद्रसे) स्वयं तैरनेवाले हैं तथा भक्तजनों को तैरानेवाले हैं, स्वयं ( जीवा जीवादि तत्त्वके) जाननेवाले हैं तथा उपदेश श्रोताओंको जानपना करानेवाले हैं, 36 उपधानवाचनापाठः अर्थसमेतः ।। १८ ।।

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