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सप्तोपधान०
सप्तो. ६
॥ अथ उपधानतप चैत्यवंदन ॥ चीर जिनन्दे भाखियो, उपधान तप विस्तार। सूत्रे गणधर साखियो, महानिशीथ मझार ॥ १ ॥ पहिलो वीस नवकारनो, इरिया वीसद जान । भावस्तव पैंतीस नो, ठवणास्तव च आण ॥ २ ॥ लोगस्स अट्ठावीसनो, दुब्वस्थ छकड होय । माला उपवान सातनी, शिक्षणं बुद्धाणं जोय ॥ ३ ॥ सात भय निवारवा, सात करो उपधान । क्रिया शुद्ध करबातणों, एह उपाय सुजान ॥ ४ ॥
विधि योगे आराधिये, ए तप उत्तम सुखकार । जिन कृपाचन्द्रसूरि सदा, आगमनो आधार ॥ ५ ॥ इति
॥ श्री उपधानतपस्तधनम् ॥
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श्री महावीर धर्म प्रकारों, बैठी परपदा बार जी । अमृत वचन सुनी अति मीठा, पामें हर्ष अपार जी ॥ सु०१ ॥ सुनो २ रे श्रावक उपधान वह्यां त्रिन, किम सूझे नवकार जी। उत्तराध्ययन बहु श्रुत अध्ययनें, एह भण्यों अधिकार जी ॥ सु०॥ महानिशीथ सिद्धांत मांहें पिण, उपधान तप विस्तार जी अनुक्रम शुद्ध परंपर दीसे, सुविहित गच्छ आचार जी || सु०३ ॥ तप उपधान वह्यां विन किरिया, तुच्छ अल्प फल जांण जी । जे उपधानवह्या नर नारी, तेहनो जन्म प्रमाण जी ॥ सु०४ ॥ तप उपधान को सिद्धांते, जो नवि माने जेह जी । अरिहंत देवनी आण बिराधे, भ्रमसे भव २ तेह जी || सु०५ || अघड्या घाट समा नर नारी, विन उपधाने होय जी । किरियां करतां आदेस निरदेस, काम सरै नहिं कोयजी ||०६ ॥ इक घेवर ने खांडे भरियो, अति घणो मीठो थाय जी । एक श्रावक उपधान बहें तो, धन २ ते कहवाय जी || सु० ७ ॥
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उपधानतप
चैत्यवंदन