Book Title: Saptopadhanvidhi
Author(s): Mangalsagar
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar
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पिधान
उपधाननए चत्य वंदन
न करै क्रोध कषाय । हुल हड हसै नहीं । मर्म केहनो नवि कहे ए । नाणे घर नो मोह । उत्कृष्टी करणी करै । साधु तणी रहणी रहे ए ।। १४ ।। पहुर सीम सिज्झाय । कर पोरिस भणी । ऊंचे स्वर बोले नहीं है। मन मांहें भावे एम । धन धन ए दिन । नरभव मांहि सफल सही ए॥ १५ ॥ ने सातों उपधान ! विध सेती बहै। पहिरै माल सोहावनी ए। तेहनी किरिया शुद्ध । बहु फलदायक । कर्म निर्जरा अति घणी ए॥१६ ।। परभव पामै रिद्ध । देव तणा सुख । बत्तीस बद्ध नाटक पढे ए। लाभै लील विलास । अनुक्रम शिव सुख । चढती पदवी जे चड़े ए॥ १७ ॥
॥कलश ॥ इम वीर जिनवर भुवन दिनयर मात त्रिशला नन्दनो । उपधान नो फल कहै उत्तम भविकजन आनन्द नो । जिनचंद युग प्रघान सद्गुरु सकल चंद मुनीसरो । तसु शिष्य वाचक समयसुंदर भणे वांछित सुख करो ।।
॥ इति सात उपधान-गर्मित-स्तवन संपूर्ण ।
॥श्री उपधानतप-स्तुति ॥ आसाढ सुदि छही, स्वर्ग थी चधिया ईश । आश्विन बदि तेरस, त्रिशला कूखे जगीश ।। सुदि तेरस जन्म्या, चैत्र मास सुखकार । श्री वीर जिनेश्वर बन्दू भाव उदार ।। १ ।।
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