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सप्तोपधान
उपधानवाचनापाठः | अर्थसमेत:
तमतिमिरपडलविद्धं, सणस्स सुरगणमरिंदमहियस्स । सीमाधरस्स वंदे, पप्फोडियमोहजालस्स ॥२॥
"जाइजरामरणसोगपणासणस्स, कल्लाणपुक्वलविसालमुहावहस्स।
को देवदाणवनरिंदगणच्चियस्स, धम्मस्स सारमुवलब्भ करे पमाय? ॥३॥ सिद्ध भो! पयओ णमो जिणमए नंदी सया संजमे, देवनागसुचनकिन्नरमण-रसम्भूअनावचिए। लोगो जत्थ पइटिओ जगमिणं तेलुकमच्चासुरं, धम्मो बडउ सासओ विजयओ धम्मुत्तरं वडउ ॥४॥
सुयस्स भगवओ करेमि काउस्सग्ग।"
गावा ४, पद १६, संपदा १६, गुरु ३४, लघु १८२, कुल अक्षर २१६॥ अर्थ--पुष्करवर नामके द्वीपके अर्द्धभागमे, धातकीखण्डमें और जम्बूद्वीपमें रहेहुए पांच भरत, पांच ऐरवत तथा पांच महाविदेहके अंदर धर्मकी आदि करनेवालोंको मैं नमस्कार करता हूँ॥ १ ॥ अज्ञानरूपी अंधकारके समूहका नाश करनेवाले, देवताओंके समूहसे इन्द्रो तथा मनुष्योंके नरेन्द्रोंसे पूजित एवं आत्माको मर्यादामें रखनेवाले, मोहरूपी जालको तोड़ डालनेवाले ऐसे श्रीजिन सिद्धान्त को मैं बन्दन करता हूँ ।। २ ।। जन्म, जरा, मरण और शोकका नाश करनेवाले, कल्याण और संपूर्ण विशाल ऐसे मोक्षसुखोंको देनेवाले, देव दानव और नरपति गणके समूहसे पूजित ऐसे श्रुतधर्मके सारको पाकर कौन प्रमाद करे? ॥ ३॥ हे ज्ञानवन्त मनुष्यों! (सर्वनय प्रमाणसे) सिद्ध ऐसे जिनमत (सिद्धान्त) को मैं आदरसहित नमस्कार करता हूँ ( उनके प्रसादसे मेरे) चारित्रधर्ममें सदा वृद्धि हो । वह चारित्रधर्म वैमानिक, भवनपति, ज्योतिषी और व्यन्तर देवोंके समूहसे सत्यभाय द्वारा पूजित है। फिर जिस जिनमतमें तीन कालका ज्ञान तथा तीन
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