Book Title: Saptopadhanvidhi
Author(s): Mangalsagar
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 46
________________ विधानमालोकसम्बन्धी अर्थात् मनुष्य, भवनपति प्रमुख सर्व देवता, तथा उपलक्षणसे तिर्यन और नारकी इस सर्व लोकरूप यह जगत् जिसमें प्रतिम्मित (रहा हवा) है, ऐसा जिनेश्वरकथित सिद्धानरूप श्रुतधर्म वृद्धि पायें। वह श्रुतधर्म शाश्वत और विजयवन्त है। वह श्रुतधर्म २१॥ जिस तरह चारित्रधर्मकी प्रधानता हो उस प्रकार वृद्धिको प्राप्त शे॥४॥ उस अनधर्मकी आराधनाके लिये मैं काउसमा करता हूँ ॥ वाचनापाठा अर्धसमेत सातमा उपधान सिद्धस्तथ श्रुतस्कंध, (सिद्धार्ग बुद्धाणं) एक वाचना, एक उपचाससे । वाचनापाउ"सिद्धाणं वुद्धाणं, पारगयाणं परंपरगयाणं । लोअग्गमुवगयाणं, नमो सया सव्वसिद्धाणं ॥१॥" "जो देवाण वि देवो, जं देवा पंजली नमसंति। तं देवदेवमहियं, सिरसा चंदे महावीरं ॥२॥" "इको वि नमुकारो, जिणवरवसहस्स वद्रमाणस्स । संसारसागराओ, तारेइ नरं व नारिं वा ॥३॥ "उचिंतसेलसिहरे, दिवानाणं निसीहिया जस्स । तं धम्मचक्रवहि, अरिट्टनेमि नमसामि ॥४॥" "चत्तारि अट्ट दस दो, य वंदिया जिणवरा चउव्वीसं । परमट्टनिट्टियट्ठा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु॥५॥" | गाथा ५, पद २०, संपदाएँ २०, गुरु २६, लघु १५०, कुल १७६ अक्षर "बेयावच्चगराणं संतिगराणं सम्महिद्विसमाहिगराणं करेमिकाउस्सग्गं" टिप्प- किसी कारणवपासें यहां पर तिन गाथा ग्रहण करी है, देखो-विधिप्रपा पृ. १०॥ ॥२१॥ CRESS 42

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