Book Title: Saptopadhanvidhi
Author(s): Mangalsagar
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 43
________________ सप्तोपधान० गाथा १, पद-४ संपदाएँ ४, गुरु ६, लघु २६, कुल अक्षर ३२| अर्थ-लोक में उयोतके करनेवाले, धर्मतीर्थको स्थापन करनेवाले, राग-द्वेषको जीतनेवाले, कर्म शत्रुको हनन करनेवाले और केवल ज्ञानी ऐसे चोबीसों तीर्थकरोंका में कीर्त्तन करूँगा ॥ १ ॥ द्वितीय वाचना छह उपवासोंसे । (२) वाचनापाठ - "उसभमजियं च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुमहं च । पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदष्पहं वंदे ॥ २॥ सुविहिं च पुष्पदंतं, सीयल-सिज्जंस वासुपूज्यं च । विमल-मणंतं च जिणं, धम्मं संतिं च वंदामि ॥३॥ कुंकुं अरं च मलि, वंदे मुणिसुब्वयं नमिजिणं च । वंदामि रिझ्नेमिं, पासं तह बद्धमाणं च ॥१४॥ गाथा ३, पद १२ संपदाएँ १२ गुरु १०, लघु १००, सर्वाक्षर ११० । अर्थ - ऋषभदेव तथा अजितनाथको मैं बन्दना करता हूँ, संभवनाथ, अभिनन्दनस्वामी, तथा सुमतिनाथ, पद्मप्रभस्वामी, रागद्वेषको जीतनेवाले सुपार्श्वनाथ तथा चन्द्रप्रभस्वामीको मैं वांदता हूँ ।। २ ।। सुविधिनाथको उपनाम पुष्पदन्त स्वामीको, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, बासुपूज्यस्वामी, विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ और शान्तिनाथको मैं बन्दन करता हूँ ॥ ३ ॥ कुन्थुनाथ, अरनाथ, महिनाथ, मुनिसुव्रतस्वामी तथा रागद्वेषको जीतनेवाले नमिनाथ स्वामीको वन्दन करता हूँ । अरिष्टनेमिप्रभुको तथा पार्श्वनाथको और वर्द्धमानस्वामीको मैं बन्दन करता हूँ ॥ ४ ॥ 39 उपधान वाचनापाठः अर्थसमेतः

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