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उपधान
अर्थसमेत:
सोपधान० (कर्मोसे स्वयं ) मुक्त होचुके हैं और अन्योंको मुक्त करानेवाले हैं. ८1, सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं, उपद्रवरहित, स्थिर, रोगरहित, अनन्तकाल पर्यन्त |
रहनेवाले, अक्षय, वाधारहित और जहां जाकर फिर वापस लौटना नहीं है, ऐसे सिद्धिगति (मोक्ष) नामक स्थानको पास हुए हैं, राग-द्वेषको लजीतनेवाले, तथा सर्व भयको जीतनेवाले हैं, उनको (नमस्कार हो) जो अतीत कालमें सिद्ध होगये हैं, जो (अनागत भविष्य ) कालमें शसिद्ध होंगे और वर्तमान काल में जो विद्यमान हैं, ऐसे सर्व जिनोंको में त्रिविध (मन, वचन और काया) से वन्दन करता हूँ १॥
[४] चतुर्थ उपधान ठवणारिहंतस्तत्र (अरिहंतचेइयाणं, ) दिन ४, कुल तप २॥ उपवास, वाचना एक।
वाचनापाठसंबलोए अरिहंतचेइयाणं करेमि काउस्संग्गंश वंदणवत्तियाँए, पूअणवत्तिर्याए, सकारवत्तियोए, सम्माणवत्तिर्याए, वोहिलाभवत्तियाँए, निरुवसग्गवत्तियांए रासद्धाए, मेहोए, धिई, धारणाए, अणुप्पेहीए, वहीणीए, ठामि काउन्सग्गं । अन्नत्थ ऊससिएणं, नीससिरणं, खासिएणं, छीएण, जंभाइएणं, उड्डएणं, वायनिसंग्गेणं, भमलीएँ, पित्तमुच्छाए ४॥ सुहुमेहिं अंगसंचालहिं, सुहुमेहिं खेलसंचालहिं, सुहुमेहि दिद्विसंचालेहिं । एवमाइएहिं आंगारेहिं अभैग्गो अविरोहिओ हुन्ज मे काउँस्सग्गोवा जाव अरिहंताणं
| भगवंतणां नमुक्कारेणं न पारमिताव कार्य ठाणेणं, मोणेणं, झोणेणं; अंपाणं वोसिरॉमि" 41 सप्तो.४ ३ 'सच्वलोए' इति पाठः पिनास्ति ।
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