Book Title: Santoka Vachnamrut Author(s): Rangnath Ramchandra Diwakar Publisher: Sasta Sahitya Mandal View full book textPage 9
________________ को-ग्रन्थ-प्रमाणको नहीं मानता और केवल ग्रन्थ-प्रमाण माननेवाला सन्त नहीं बन सकता। कोई व्यक्ति तभी सन्त बन सकता है जब अपने पुरुषार्थ से सत्यका साक्षात्कार करता है। यदि सन्तके अनुभवको किसी ग्रंथसे पुष्टि मिलती है तो वह उस ग्रंथका भाग्य है, सन्तका नहीं ! इससे सुविज्ञ पाठक समझता है कि उस पुस्तकमें कुछ तथ्य है ! सत्यका साक्षात्कार किया हुआ मनुष्य कभी अन्य प्रमाणको स्वीकार नहीं कर सकता, इसलिए वह किसी सम्प्रदायका अनुकरण नहीं करता। भारतके सन्तोंने सदैव प्रमाणवादका विरोध किया है और प्रमाणवाद किसी भी सम्प्रदायवादकी जड़ है। कन्नड़ वीर-शैव सन्तोंने मानव मात्रको, "अनुभव-जन्य ज्ञान-गुरुका प्राचार शिष्यत्व स्वीकार करने” की दीक्षा दी है, जो आज, बीसवीं सदीमें भी, धार्मिक ही नहीं, राजनैतिक साम्प्रदायिकताके उन्मादमें विनाशके कागारपर खड़े मानव-समाजको चेतावनी है। मूल वचनोंके अनुवादमें भी मैंने वचनोंके भावोंके समान उनकी शैलीका अनुकरण किया है। उनके भावोंको अक्षुण्ण रखनेका पूर्ण प्रामाणिकताके साथ प्रयत्न किया है । इसमे मुझे समाधान है, किन्तु मूल वचनोंके भाव-सौन्दर्य के साथ उनके ध्वनि-माधुर्य और शब्द-सौन्दर्यकी रक्षा मैं नहीं कर पाया ! फिर भी मुझे विश्वास है, सावधानीपूर्वक अनुवादका अध्ययन किया जाय तो मूलकी कल्पना पा सकती है। ___ इस पुस्तकके अनुवादकी प्रेरणा देनेवाले महानुभावोंका मैं आभारी हूं। साथ ही जिन सज्जनोंने अनुवादको पढ़कर, उपयोगी सुझाव दिये, उनका भी मैं ऋणी हूं। इस पुस्तकके प्रकाशनके लिए उत्तर प्रदेशीय शासनके शिक्षाविभागके दो हजार रुपयेके अनुदानके लिए मैं उन्हें धन्यवाद देता हूं। -~-बाबुराव ...:..Page Navigation
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