Book Title: Santoka Vachnamrut
Author(s): Rangnath Ramchandra Diwakar
Publisher: Sasta Sahitya Mandal

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Page 8
________________ • संदीमें" बनाये गए शिवकांची के कैलाशनाथ मंदिरपर शैवमतके: ग्राधारभूत २८ शिवागमोंका नाम खुदा हैं, क्योंकि वहांकी पूजा-अर्चा आदि उन शिवागमोंकी विधिसे होती है । 'उन शिवागमोंमें वीरशैव साधना प्रणालीके विधि - निषेधक स्पष्ट विवेचन है ।' दूसरी बात भारतीय इतिहासका सामान्य विद्यार्थी भी जानता है कि दक्षिण में चौथी सदी के अन्तिम चरणसे छठी सदी तक बौद्ध, जैन तथा शैव मतका तीव्र संघर्ष रहा । अन्तमें शैवोंकी विजय हुई | तिरुज्ञान संबंधीसे प्रभावित होकर इन कुलोत्तुंग चोल और कूरणपांडयने जैन धर्मका त्याग करके शैव दीक्षा ली, अर्थात् शैव संतोंके पास ई० सं० पांचवीं छठी सदी में ही ई० पू० पांचसौ वर्षोंके पहले से दृढ़ मूल होकर विकसित वौद्ध और जैन-धर्मका संकोच करने जितनी दार्शनिक प्रतिभा थी और तब अरवस्तानकी गर्भावस्थामें भी इस्लामका उदय नहीं हुआ था ! श्री बसवेश्वरने किसी नये मतकी स्थापना नहीं की । सदियोंसे दक्षिणमें जो मत प्रचलित था, दक्षिणके श्रागमकारोंने, शैव सन्त नायनमारोंने, संस्कृत और तामिलके माध्यमसे जो कुछ कहा था, उसीको कन्नड़के माध्यम से कहा । इसका प्रारंभ भी श्री बसवेश्वरने नहीं किया । उनसे दो- तीनसौ वर्ष पहलेसे यह कार्य हो रहा था। श्री बसवेश्वर आदि वचनकार नहीं हैं । ई० सं० १०४० के करीब जेड़र दासिमय्य, मेरे मिंडय्या, विश्व एलेश्वर केतय्य, आदय्य आदि दसों वीरशैव संत देखनेको मिलते हैं । इन सबने वचन लिखे हैं । कहते हैं, प्रथम चालुक्य ' जयसिंहको पटरांनी सुग्गलदेवी इन दासिमय्यकी शिष्या थी । दासि मय्यने जयसिंहकी वीरशैव दीक्षा दी थी । जयसिंह के दरबार में. जैन आचार्योंसे शास्त्रार्थ किया था । श्री बसवेश्वर के कई वचन कहते हैं कि वे इस दासि मय्यसे बड़े प्रभावित थे । यह दासि मय्य अपने एक वचनमें कहता है" गूंजने वाले श्राद्योंके वचनोंके लिए मैं शिव-दर्शन भी छोड़ दूंगा ।" दासिमय्य का यह वचन वचनसाहित्यकी परम्पराको और अधिक पहले ले जाता है, क्योंकि दासिमय्यने "गूंजनेवाले ग्राद्योंके वचनके लिए शिवदर्शन भी छोड़ देने" की बात अपने वचन के लिए खास नहीं कही होगी, अर्थात् दासिमय्यसे पहले भी कन्नड़ वीर-शैव संत रहे होंगे । यह उनके 'आधार वचन' इससे स्पष्ट होता है । वीर- शैव सन्तोंका मानना है कि "ज्ञान ही गुरु, आचार ही शिष्य है ।" उनका यह सिद्धान्त साम्प्रदायवाद के विरुद्ध विद्रोहकी शंख ध्वनि है । सन्त कभी साम्प्रदायिक नहीं हुआ करते, क्योंकि सन्त कभी किसी प्रमाण१ इस जयसिंह का राज्यकाल १०७६-१०८१ था । . •

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