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कमलापद्धति - ले. प्रेमनिधि पन्त। श्लोक 2001 विषयतांत्रिक उपासना। कमलिनी-कलहंसम् (नाटिका) . ले. राजचूडामणि यज्ञनारायण दीक्षित। ई. 16 वीं शती का अन्तिम चरण। सभी पात्र प्रकृतिपरक परंतु उनकी वृत्ति-प्रवृत्तियां मानवोचित है। चोल शासक महाराज रघुनाथ के शासन-काल में इसका प्रथम अभिनव अनन्तासनपुर में विष्णु की यात्रा के अवसर पर हुआ (1614 ई. के पश्चात्) । प्रमुख रस शृंगार। इसका कथानक कल्पित । कुल पात्रसंख्या चौदह । सुबोध एवं संगीतमयी रचना । कथा - नायक कलहंस के मामा कमलाकर को परास्त करने पर बकोट उनकी कन्या कमलिनी एवं धात्रेयी को उठा ले जाता है। कलहंस कमलजा से प्रेम करने लगता है। कमलजा को सारसिका भरतनाट्य सिखाती है। बाद में पता चलता है कि कमलिनी ही कमलजा का रूप धारण कर आयी है। नायक कलहंस तथा नायिका कमलिनी कामसन्तप्त होते हैं
और मदनोद्यान में वे मिलते भी हैं, परंतु उनका मिलन नहीं हो पाता। प्रतिनायिका के रूप में कलहंस की रानी उसमें बाधा डालती है, परंतु बाद में रानी को पता चलता है कि कमलजा वास्तव में उसी की बहन है, तब वह कलहंस-कमलिनी का विवाहसम्बन्ध स्वीकार करती है। कमलिनी-राजहंसम् (नाटक) - ले. केरल के एक कवि व नाटककार श्री. पूर्णसरस्वती। ई. 14 वीं श, का पूर्वार्ध । पूर्णसरस्वती संन्यासी थे और त्रिचूरस्थित मठ में रहते थे। टीका, काव्य, नाटक आदि विविध प्रकार के 7 से भी अधिक ग्रंथों की रचना द्वारा संस्कृत साहित्य की श्री-वृद्धि करने वाले केरल के पंडितों में पूर्णसरस्वती का अपना एक विशेष स्थान है। अंक- पांच। राजहंस एवं पंपा-सरोवर की कमलिनी के विवाह का प्रसंग इसमें वर्णित है। कमलाविजयम् (नाटक) - मूल- आल्फ्रेड टेनीसन कृत दो अंक का प्रेक्षणक। अनुवादक- वेंकटरमणाचार्य। 1909 में लिखित। 1938 में प्रकाशित । रूपान्तर में मूल शोकान्त कथानक में बदल कर सुखान्त किया है। नाटक रचना में गेय पद्धति का अवलंब किया है। करणकंठीरव - ले. केशव। ई. 15 वीं शती। विषयज्योतिषशास्त्र। करणकुतूहलम् - ले. भास्कराचार्य। ई. 12-13 वीं शती। विषय- ज्योतिर्गणित। करणकौस्तुभ - ले.- कृष्ण (सुप्रसिद्ध ज्योतिःशास्त्रज्ञ)। शिवाजी महाराज ने अपने स्वराज्य में भाषाशुद्धि के उपरान्त, पंचांगशुद्धि का प्रयास किया। प्रस्तुत ग्रंथ उसी प्रयास में लिखवाया गया। ज्योतिःशास्त्रज्ञों में इस ग्रंथ का आदर से उल्लेख होता है। करुणरसतंरगिणी (स्तोत्रकाव्य) - ले. जगु श्री बकुलभूषण।
वेंगलुरु निवासी। करुणालहरी (विष्णुलहरी) - ले. जगन्नाथ पण्डिराज। ई. 16-17 वीं शती। श्लोकसंख्या 60। स्तोत्रकाव्य । कर्णधारः (काव्य) -ले. हरिचरण भट्टाचार्य। कलकत्ता निवासी। जन्म ई. 1878। कर्णभारः (नाटक) - ले.- महाकवि भास। इसमें महाभारत की कथा के आधार पर कर्ण का चरित्र वर्णित है। महाभारत के युद्ध में द्रोणाचार्य की मृत्यु के पश्चात् कर्ण को सेनापति बनाया जाता है। अतः इसे 'कर्णभार' कहा गया है। सर्वप्रथम सूत्रधार रंगमंच आता है। सेनापति बनने पर कर्ण अपने सारथी शल्य को अर्जुन के रथ के पास उसे ले जाने को कहता है। मार्ग में वह अपनी अस्त्र-प्राप्ति का वृत्तांत व परशुराम के साथ घटी घटना का कथन करता है। उसी समय नेपथ्य से एक ब्राह्मण की आवाज सुनाई पडती है कि 'मैं बहुत बडी भिक्षा मांग रहा हूं'। ब्राह्मण और कोई नहीं इन्द्र है। वे कर्ण से उसके कवच-कुंडल मांगने आए थे। पहले तो कर्ण देने से हिचकिचाता है और ब्राह्मण को सुवर्ण व धन मांगने के लिये कहता है पर ब्राह्मण अपनी हठ पर अडा रहता है, और अभेद्य कवच की मांग करता है। अंत में कर्ण अपने कवच-कुंडल दे देता है और उसे इंद्र से 'विमला' शक्ति प्राप्त होती है। पश्चात् कर्ण व शल्य अर्जुन के रथ की और जाते हैं तथा भरतवाक्य के बाद नाटक समाप्त होता है। ___ महाकवि भास ने नाटक में घटनाओं की सूचना कथोपकथन के रूप में देकर इसकी नाटकीयता की रक्षा की है। यद्यपि इसका वर्ण्य-विषय युद्ध व युद्ध-भूमि है, तथापि इस नाटक में करुणरस का ही प्राधान्य है। नाटक में 2 चूलिकाएं हैं। 5- कर्पूरचरितम् (भाण)- इस भाण में एक चूलिका है जिसका प्रयोगस्थान प्रस्तावना में है। स्वरूप के अनुसार यह अंकबाह्य एककृत अखण्ड है। कर्पूरक के प्रवेश की सूचना चूलिका का विषय है। कर्पूरक (विट) मध्यम श्रेणी का श्रृंगार सहायक पात्र है। भाषा संस्कृत है। पात्रप्रवेश की सूचना देने के कारण चूलिका उपयुक्त है। कर्पूरस्तव -(नामान्तर - कर्पूरादिस्तोत्रं या कर्पूरस्तवराजः, कालिकास्वरूपाख्य स्तोत्रं) श्लोक- 64।
इस स्तोत्र काव्य पर श्रीशंकराचार्य, वेणुधर, काशीरामभट्ट, दुर्गाराम तर्कवागीश, कालीचरण, कृष्णचन्द्र-पुत्र नन्दराम, ब्रह्मानन्द, सरस्वती, व्रजनाथपुत्र रंगनाथ, कुलमणि शुक्ल, परमानन्द पाठक, अनन्तराम, रामकिशोर शर्मा आदि विद्वानों की टीकाएं उपलब्ध हैं जिनसे इसकी महत्ता सूचित होती है। कर्णसन्तोष -ले. मुद्गल। कर्मतत्त्वम् -ले. नरहर नारायण भिडे। नागपुर निवासी मैसुर वि.वि. द्वारा संचालित संस्कृत निबंध स्पर्धा में प्रथम पुरस्कृत
50/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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