Book Title: Sanskrit Vangamay Kosh Part 02
Author(s): Shreedhar Bhaskar Varneakr
Publisher: Bharatiya Bhasha Parishad

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Page 425
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 10 वीं शती। सार्वभौम-प्रचारमाला - (मासिक पुस्तकमाला) संपादकवासुदेव द्विवेदी। वाराणसी- निवासी। सिद्धखण्ड- ले.- नित्यनाथ। श्लोक- 770। सिद्धचक्राष्टकटीका - ले.- श्रुतसागरसूरि । जैनाचार्य। ई. 16 वीं शती। सिद्धनागार्जुनीयम्- ले.- सिद्धनागार्जुन। श्लोक-1800 । सिद्धपंचाशिका- उमा-महेश्वर-संवादरूप। मूलनाथ द्वारा अवतारित । यह 5 पटलों में पूर्ण कुलालिकाम्नाय का एक अंश है। सिद्धभक्तिटीका-ले.- श्रुतसागरसूरि । जैनाचार्य 16 वीं शती। सिद्धयोगेश्वरीतन्त्रम् - (नामान्तर-सिद्धयोगेश्वरीमत अथवा भैरववीरसंहिता) श्लोक-13001 पटल-32| विषयशक्ति-त्रयोद्धार, विद्यांगोद्धार, लोकपालोद्धार, समयमंडल, विद्याव्रत का निराकरण, दुर्गामाहात्म्य, प्रसिद्ध तन्त्रों के नाम। पीठों का निर्णय, महाविद्या-निरूपण, कुण्डलिनी की अंगभूत मातृकाएं, महाकामिनी के ध्यान, पंच बाणों का निर्णय, वेदोत्पत्ति वर्णन, वर्णमाला-निरूपण, आद्या के एकाक्षर मंत्र के अर्थ, महादुर्गा, तारा, श्रीविद्या, भुवनेश्वरी, वाग्भवी, धूमावती, बगलामुखी, कमला, मातंगी आदि के एकाक्षर मंत्रों के अर्थ, विद्याओं के विशेष नाम। काली, तारा और दुर्गा के एक होने से परस्पर अविशेष, गुरु शिष्य आदि के लक्षण, दीक्षाकाल, विविध देवदेवियों की पूजा आदि। सारार्थचतुष्टयम्- ले.- वरदाचार्य। सारार्थदर्शिनी - (श्रीमद्भागवत की टीका) ले.- विश्वनाथ चक्रवर्ती। इस टीका का निर्माण काल-1704 ई. है। लेखक की प्रौढ अवस्था की रचना है। सारार्थदर्शिनी टीका के नाम की यथार्थता के विषय में लेखक ने लिखा है कि श्रीधरस्वामी, चैतन्य महाप्रभु एवं अपने गुरु के उपदेशों के सार को प्रदर्शित करने का प्रयास है। यह भागवत की रसमयी व्याख्या है। इसमें भागवत का प्रतिपाद्य रसतत्त्व बड़े ही सरस शब्दों में अभिव्यक्त किया गया है। इसकी शैली रोचक होने के कारण, भागवत सरोवर में अवगाहन के लिये सुगम सोपान के समान यह उपादेय है। इसमें भागवत के दार्शनिक तत्त्वों का भी विवेचन बडी ही सहज सरल पद्धति से किया गया है। प्रस्तुत टीका के अंतिम श्लोक में लेखक ने अपनी अतीव विनम्रता व्यक्त की है हे भक्ता द्वारि वश्चंचद्-बालधी रौत्ययं जनः । नाथावशिष्टः श्वेवातः प्रसादं लभतां मनाक् ।। अर्थात् जिस प्रकार कुत्ते को खाने के लिये जूठन दी जाती है, उसी प्रकार भक्तों के द्वार पर रोने वाला यह बालक भी भगवान् के भोग का अवशिष्ट प्रसाद पावे। अपनी तुलना कुत्ते से करना, भावुक भक्त की विनम्रता का चरमोत्कर्ष है। इस टीका में वेद तथा शास्त्र के प्रमाणभूत ग्रंथों एवं श्रीधर स्वामी-सनातन, जीव, मधुसूदन, यामुनाचार्य प्रभृति आचार्यों का उल्लेख टीकाकार की बहुज्ञता का परिचायक है। सारावली - विषय- दीक्षित के अवश्यकरणीय दैनिक कत्यों तथा दीक्षाविधि का वर्णन । दीक्षा संबंध में आकर ग्रंथों के प्रमाणवचनों का प्रतिपादन।। सारीपुत्तप्रकरणम् (नाटक)- ले.- अश्वघोष। इसमें सारीपुत्र तथा मौद्गलायन के बौद्धधर्म में दीक्षित होने की कथा है। सारोद्धार - (त्रिंशच्छ्लोकीविवरण की टीका) ले.- शम्भुभट्ट। सार्धद्वयद्वीपपूजा - ले.- शुभचन्द्र। जैनाचार्य। ई. 16-17 वीं शती। 2) ले.- ब्रह्मजिनदास। जैनाचार्य। ई. 15-16 वीं शती। सार्धद्वयद्वीपप्रज्ञप्ति - ले.- अमितगति (प्रथम) जैनाचार्य। ई. सिद्धलहरीतन्त्रम्- जातुकर्ण्य- नारण संवाद रूप। विषय- मुख्य रूप से काली-पूजाविधि। 50 मातृका वर्णो की महिमा तथा द्वाविंशत्यक्षरी विद्या की महिमा वर्णित है। सिद्धविद्यादीपिका - ले.-शंकराचार्य। गुरु-जगन्नाथ । श्लोक-972। पटल 9। विषय- दक्षिणकालिका-कल्प, दक्षिणकाली-पूजाविधि, उनके साधन, मंत्रोद्धार, पुरश्चरण विधि तथा नैमित्तिकानुष्ठान। सिद्धशबरतन्त्रम्- ईश्वरी-ईश्वरसंवाद रूप तथा महादेव-दत्तात्रेय संवाद रूप। तीन खण्डों में विभक्त- (प्रथम, मध्यम, उत्तम) विषय- मारण, मोहन, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन, वशीकरण, आकर्षण, इन्द्रजाल इ.। सिद्धसन्तानसाधन-सोपानपंक्ति- ले.- यशोराज। पिता-गोप। पटल-18 में पूर्ण। यशोराज का पूरा नाम यशोराजचन्द्र था। वे "बालवागीश्वर" भी कहलाते थे। सिद्धसिद्धांजनम् - विविध प्रकार के तांत्रिक और ऐन्द्रजालिक प्रयोगों का प्रतिपादक ग्रंथ। सिद्धसिद्धान्त-पद्धति- ले.-गोरक्षनाथ। श्लोक-264। छह उपदेशों में पूर्ण। इस निबन्ध में मुख्यतः देवी शक्ति ही प्राधान्येन पूजायोग्य है; उसी में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करने की असाधारण शक्ति है, यह निर्दिष्ट है। सिद्धहेमशब्दानुशासनम्- ले.- हेमचंद्र सूरि। प्रसिद्ध जैन आचार्य। वि.सं. 1145-12291 संस्कृत- प्राकृत का व्याकरण। प्रथम 8 अध्यायों में (28 पाद) संस्कृत भाषा का व्याकरण, (3566 सूत्रों में)। आठवें अध्याय में प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची आदि भाषाओं का व्याकरण । सूत्रसंख्या 11191 यह प्राकृत भाषाओं का सर्वप्रथम व्याकरण है। कातन्त्र के समान प्रकरणानुसारी रचना । यथाक्रम संज्ञा, स्वरसन्धि, व्यंजनसंधि, नाम, कारक आदि प्रकरण हैं। 408 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only

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