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संहिता के द्वितीय भेद 'गान' के चार भाग हैं- 1) गेय, 2) आरण्यक, 3) ऊह 4) ऊह्य। पूर्वार्चिक में गेय और आरण्यक गान हैं, तो उत्तरार्चिक में ऊह और ऊह्य गान । दोनों आर्चिकों में ऋचाएं हैं और तन्मूलक ही ये चार गान हैं। इन चारों गानों की ऋचाएं क्रमबद्ध नहीं हैं।
पूर्वार्चिक में 6 प्रपाठक और उत्तरार्चिक में 9 प्रपाठक हैं। कुल संहिता की मन्त्र संख्या 1810 है। 75 मन्त्रों को छोड शेष सभी मन्त्र ऋग्वेद में पाये जाते हैं। दशरात्र पर्व से सत्रान्त तक यागों में उद्गातृगण द्वारा गाये जाने वाले स्तोत्र इस संहिता में संकलित हैं। सामवेद की कौथुम शाखा का प्रचार गुजरात में अधिक है। कौथुमों का गृह्यसूत्र उपलब्ध है। उनका कल्पसूत्र होने की भी संभावना है। कौमारबलि - श्लोक- 120। विषय- स्कन्द (कार्तिकेय) की पूजा एवं बलिदान विधि आदि । कौमारीपूजा - इसमें सप्त मातरों में अन्यतम कौमारी देवी की पूजापद्धति निर्दिष्ट है। इसका काल नेपाली संख्या 400 या 1280 ई. कहा गया है। कौमुदी - गोल्डस्मिथ के मूल हरमिट नामक अंग्रेजी काव्य का अनुवाद । अनुवादक- क्रागनोर का राजवंशीय कवि रामवर्मा। कौमुदी - सन 1944 में हैदराबाद (सिन्ध) से श्रीसरस्वती परिषद् की ओर से पं. कालूराम व्यास के संपादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ था। यह प्रति पौर्णिमा को प्रकाशित की जाती थी। इसका वार्षिक मूल्य डेढ़ रुपया था। कौमुदी-मित्रानंदम् (प्रकरण) - ले. गुरु रामचंद्र। रचना काल 1173 के 1176 ई. के आसपास। इस प्रकरण में अभिनय के तत्त्वों का अभाव पाया जाता है। इसका प्रकाशन 1917 में भावनगर से हो चुका था। कौमुदी-सुधाकरम् (प्रकरण) - ले. चन्द्रकान्त । रचनाकालसन 1888। हरचन्द्र के पुत्र हेमचन्द्र और चारुचन्द्र के विवाह अवसर पर अभिनीत । कलकत्ता से सन 1888 में प्रकाशित । कथावस्तु उत्पाद्य । “भवभूति" के "मालती-माधव'"से प्रभावित । कथासार- कात्यायनी यात्रा महोत्सव में नायिका कौमुदी को देख नायक सुधाकर मोहित होता है। खण्डमुण्डन नामक कापालिक नायिका का अपहरण करता है। नायक उसे ढूंढ लेता है परन्तु राजा वसुमित्र के लिए फिर उसका अपहरण होता है। भगवती उसकी रक्षा करती है, अन्त में दोनों का विवाह होता है। कौमुदी-सोम (रूपक) - ले. ब्रह्मश्री कृष्णशास्त्री । रचनाकालसन 1860, केरलनरेश रामवर्मा के अभिषेक अवसर पर प्रथम बार अभिनीत। स्वयं राजा उपस्थित थे। अंकसंख्या पांच। सन 1886 में मद्रास से प्रकाशित। यह एक प्रतीक नाटक है। प्रकृति के विविध तत्त्व मानवीय प्रवृत्ति में प्रदर्शित हैं। प्रमुख
रस-शृंगार। कथासार - पुष्करपुरी के राजा शरदारम्भ की कन्या कौमुदी की जन्म अशुभ मुहूर्त पर होता है। अशुभ निवारणार्थ उसे कस्तूरिका गणिका को सौंपते हैं। ज्योत्स्रावती नगरी की रानी तारावती के वसन्तोत्सव में कस्तूरिका के साथ नायिका संमिलित होती है। उस पर ज्योत्स्रावती का नरेश सोम मोहित होता है।
यहां सोम की राजधानी पर अन्धकार आक्रमण कर कौमुदी का अपहरण करता है परन्तु गभस्तिदेवी उसे बचाती है। कौलगजमर्दनम् - श्लोक- 624। ले. श्रीकृष्णानंदाचल । रचनाकाल - सन 1954। इसमें तन्त्र-मन्त्र का, विशेषतः कौल क्रियाओं का खण्डन, विविध तन्त्रों का तथा पुराणों के वचन प्रमाण से किया गया है। कौलज्ञाननिर्णय - योगिनीकौलमत का एक प्रमुख ग्रंथ । श्लोक- 567। इसमें भैरवी एवं देवी के संवादों के माध्यम से सृष्टिसंहार, कुललक्षण, जीवलक्षण, अजरामरता, चक्र, शक्तिपूजा, ध्यानयोगमुद्रा, परमवज्रीकरण, भैरवावतार, ज्ञानसिद्धि, क्रियासिद्धि, योगिनीकौलमत व अन्य कौलपरम्परा का विवरण है। कौलतन्त्रम् - श्लोक- 104 । पटल-5। भैरवी-भैरव संवादरूप। इस ग्रंथ में कौल सम्प्रदायानुसार तारा और काली की पूजा का प्रतिपादन है जिनमें ताराकल्पस्थ, तारारहस्य, ताराचार तथा कालीकल्प के विषय प्रमुखता से वर्णित हैं। कौलरहस्यम् (रजस्वलास्तोत्र) - ले.तरुणीवीरेन्द्र । नरोत्तमारण्य मुनीन्द्र का शिष्य। कौलादर्श - श्लोक 200। ले. विश्वानन्दनाथ । विषय- कौलामृत तथा कुलार्णव में कहे गये पदार्थों का संग्रह कर, कौलों के आचार और समस्त धामों का वर्णन । कौलादर्शतन्त्रम् - ले.अभयशंकर। पिता-उमाशंकर । कौलावलीतन्त्रम् - श्लोक 600। उल्लास 3। ईश्वर-देवी संवादरूप। विषय-रुद्रयामल के उत्तर तन्त्र से गृहीत । कौलावलीयम् - ले.जगदानन्द मिश्र । सन 1772 में लिखित । श्लोक 1860 । विषय- तंत्रशास्त्र । तांत्रिक साधना की गोपनीयता पर ग्रन्थकार ने अधिक बल दिया है। कौलिर्काचनदीपिका - [नामान्तर 1) कुलदीपिका 2) अर्चनदीपिका ।] ले.जगदानन्द परमहंस । विषय- तंत्रशास्त्र । सन 1758 में वाराणसी में इसका लेखन हुआ। श्लोक 1500। विषय- कुलधर्म की प्रशंसा, कौलज्ञान की प्रशंसा, कुलीनों की प्रशंसा, कुलीन का लक्षण, वंशवृक्ष कुलीनों के पर्वकृत्य, कुलीनों के त्याज्य और ग्राह्य विषय। कुलद्रव्य और उनके प्रतिनिधि, कलशलक्षण, कलशपात्र का वर्णन, उसका आधार, चषकविधान, पूजा, मंडल, सामान्य अर्ध्य । कुलीनों के द्वारपाल, उनकी पूजा, विजयाग्रहण, विजया स्वीकारविधि, पूजाप्रयोग आदि का कथन, घटस्थापन, सुधासंस्कार, श्रीपात्रस्थापन, गुरु आदि
86 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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