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जो मीमांसा "साहित्य दर्पण" में है (3-269-272) तदनुसार सभी नियमों की पूर्ण व्याप्ति "रत्नावली" में होती है। ___ "रत्नावली' में अंगी रस श्रृंगार है जो धीरललित नायक
की प्रणय लीलाओं के चित्रण के लिये सर्वथा उपयुक्त है। विदूषक की योजना द्वारा इसमें हास्य रस की भी सृष्टि की गई है। इनके अतिरिक्त वीर व भयानक रस का भी संचार किया गया है। रत्नावली के टीकाकार - (1) भीमसेन (2) मुद्गलदेव (3) गोविन्द (4) प्राकृताचार्य (5) विद्यासागर (6) के.एन. न्यायपंचानन (7) एस.सी.चक्रवर्ती (8) शिव (9) लक्ष्मणसूरि (10) आर.व्ही. कृष्णमाचार्य (11) एस.एस. राय (12) व्ही.एस, अय्यर (13) नारायण शास्त्री निगुडकर। (क्षेमेन्द्र की नाटिका ललितरत्नमाला की कथावस्तु रत्नावली के समान है)। रत्नावली- ले.-बदरीनाथ शास्त्री। (ई. 20 वीं शती) संस्कृत विद्यामन्दिर, बडौदा से प्रकाशित । बडौदा संस्कृत विद्वत्सभा के पंचम वार्षिकोत्सव मे अभिनीत। यह एक "पुष्पगण्डिका" है जिसका विषय है- राधा-कृष्ण की लीला।। रत्नावली-भद्रस्तव - ले.-सदाक्षर (कवि कुंजर) ई. 17 वीं शती। रत्नाष्टकम् - ले.- पं. अम्बिकादत्त व्यास (शिवराजविजयकार)। रत्नेश्वर-प्रसादनम् (नाटक) - ले.-गुरुराम । ई. 16 वीं शती। उत्तर अर्काट जिले के निवासी। 1939 में प्रकाशित । अंकसंख्यापांच। कथासार - गन्धर्वराज वसुभूति की कन्या रत्नावली सरस्वती से शिक्षा पाती है। वह वाराणसी में निरन्तर शिवलिंग की आराधना करती है। शिव प्रसन्न होकर रत्नचूड को (भोगवती का राजकुमार) उसका पति चुनते हैं। ऐन्द्रजालिक की कला के द्वारा प्रेक्षकों को रत्नचूड रत्नावली की प्रणयगाथा विदित होती है। परंतु सुबाहु नामक दानव भी रत्नावली को चाहता है। रत्नचूड और सुबाहु में युद्ध होता है और नायक रत्नचूड के हाथों प्रतिनायक मारा जाता है। वसुभूति रत्नचूड को कन्या का दान करता है। रमणगीताप्रकाश - ले.-कपालीशास्त्री। गणपतिमुनि कृत रमणगीता की टीका । मूल रमण महर्षि के वचन तमिल भाषा में है। रमणीयराघवम् - ले.-ब्रह्मदत्त । रमावल्लभराजशतकम् - ले.-बेल्लमकोण्ड रामराय। आन्ध्र निवासी। रम्भामंजरी - ले.-नयचंद्र सूरि। यह एक सट्टक अर्थात् शंगारिक उपरूपक है। 1889 ई. में निर्णयसागर प्रेस मुंबई द्वारा इसका प्रकाशन हुआ। रम्भारावणीयम् (नाटिका) - ले.-सुन्दरवीर रघूद्वह। ई. 19 वीं शती। इसमें पशुपक्षी पात्र के रूप में है। कई मानव पात्रों को भी शार्दूल, कलकण्ड, दर्दुरक, नीलकण्ठ, कलविंक इ. पशु-पक्षियों के नाम दिये हैं। कथानक में एकसूत्रता का
अभाव है। रावण, बाणासुर तथा सहस्रार्जुन को समकालीन बनाया है। अंकसंख्या- चार। मायात्मक प्रवृत्ति की प्रचुरता । रूप बदल कर कई पात्र धोखाघडी में व्याप्त हैं। नलकूवर की पत्नी रम्भा का रावण द्वारा भ्रष्ट होना और नलकूवर द्वारा रावण को शाप देना यह है प्रमुख कथानक । रविवर्मसंस्कृतग्रंथावली - सन 1953 में त्रिपुरणिथुरा (केरल) से सि.के.राम नंबियार के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। त्रिपुरणिथुरा संस्कृत विद्यालय समिति की पत्रिका। वार्षिक मूल्य पांच रु.। इसमें अप्रकाशित ग्रंथों का प्रकाशन हुआ। प्रत्येक अंक की पृष्ठसंख्या लगभग एक सौ। रविव्रतकथा - ले.-अभय पंडित। ई. 17 वीं शती।
2) ले.- श्रुतसागरसूरि। जैनाचार्य। ई. 16 वीं शती। रविसंक्रान्तिनिर्णय - ले. रघुनाथ। पिता- माधव । रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता - अनुवादक- वरदाचार्य । रवीन्द्रनाथ टैगोर के "रिनन्सिऐशन" नामक काव्य का पद्य अनुवाद । अनुवादक- तिरुपति के पास तानपल्ली के निवासी थे। रश्मि - पृष्टिमार्गीय आचार्य पुरुषोत्तमजी के "भाष्य-प्रकाश" की गोपेश्वरकृत व्याख्या। रश्मिमालामन्त्र - श्लोक- लगभग 100। गायत्री आदि मन्त्रों का संग्रहरूप तन्त्रनिर्बन्ध । विषय- ध्यान, मुद्रा आदि के साथ विविध मन्त्रों का निर्देश। रसकर्ममंजरी - ले.-राजाराम तर्कवागीश। पटल- 3। विषयमारण, मोहन, उच्चाटन, विद्वेषण, स्तंभन आदि षट् कर्मों के उचित काल आदि के नियम । त्र्यम्बकादि प्रयोग तथा शान्तिविधि । रसकल्प - रुद्रायामलान्तर्गत, उमा-महेश्वर संवादरूप। विषयपारद से विविध रसों के निर्माण का प्रतिपादन। रसशोधन, रसमारण, सत्वपातन तथा सर्वलौह-द्रुतिपातन इ.। रस-कल्पद्रुम - ले.-चतुर्भुज। 65 प्रस्तावों का साहित्यशास्त्रीय ग्रंथ। 1000 श्लोक। इनमें से 5-6 श्लोक शाइस्ताखान द्वारा लिखित हैं। रसगंगाधर - ले.-पंडितराज जगन्नाथ। इन्होंने मम्मटाचार्य के काव्यप्रकाश की टीका लिखते समय उनके प्रतिवादन में जो दोष देखे उनसे मुक्त साहित्य-शास्त्रीय ग्रंथ लिखने के उद्देश्य से रसगंगाधर की रचना की। इस ग्रंथ में ध्वनितत्त्व विरोधी युक्तिवादों का खंडन तथा ध्वनिसिद्धान्त की प्रतिष्ठापना प्रमुख उद्देश्य है। अपनी आयु के 58 वें वर्ष में पंडितराज ने इस महान् ग्रंथ का लेखन आरंभ किया। काव्य-प्रयोजनों में अन्य प्रयोजनों के साथ गुरुप्रसाद तथा (2) राजप्रसाद भी प्रयोजन माना है। पूर्वसूरियों के काव्यलक्षणों में दोष दिखाते हुए "रमणीयार्थप्रतिवादकः शब्दःकाव्यम्" यह स्वतंत्र लक्षण बताया गया है। अपने स्वकृत लक्षण की स्थापना करते हुए उन्होंने प्राचीन सभी काव्यलक्षणों का मार्मिकता से खंडन किया है।
292 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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