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कुन्दमाला (नाटक)- ले. दिङ्नाग (सम्पादक रामकृष्ण के मतानुसार)। नवीन शोध के अनुसार लेखक धीरनाग। ई.5 वीं शती। विषय- राज्याभिषेक के उपरांत रामचरित्र। संक्षिप्त कथा - कुन्दमाला नाटक के प्रथम अंक में, लक्ष्मण सीता को गंगा के किनारे छोड कर जाते हैं। परित्यक्ता एवं कठोरगर्भा सीता को वाल्मीकि अपने आश्रम में ले जाते हैं। द्वितीय अंक में वाल्मीकि-आश्रम के समस्त ऋषि नैमिषारण्य में राम के अश्वमेघ यज्ञ में भाग लेने के लिये जाते हैं। तृतीय अंक में राम और लक्ष्मण नैमिषारण्य में जाते हैं। भागीरथी में तैरती हुई कुन्दमाला के गंध के कारण सीता के समीप होने का अनुमान राम लगाते हैं। चतुर्थ अंक में सीता और राम । का संवाद है। पंचम अंक में राम को लव और कुश रामायण का सस्वर गान सुनाते है। राम, प्रेम से उन्हें अपने सिंहासन पर बिठाते हैं और उन दोनों को अपनी ही संतान मानते हैं। षष्ठ अंक में लव-कुश राम को रामायण की कथा सीता निर्वासन से सुनाते हैं। बाद में वाल्मीकि के शिष्य कण्व, राम को लव-कुश के वास्तविक स्वरूप का परिचय देते हैं। सीता के द्वारा अपनी शुद्धि प्रमाणित कर देने पर राम-सीता को स्वीकार कर राज्यकारभार कुश को सौंप देते हैं। कुन्दमाला नाटक में कुल दश अर्थोपक्षेपक हैं। इनमें 3 प्रवेशक 6 चूलिकाएं और 1 अंकास्य है। कुन्दमाला ( नाटक) - ले. उपेन्द्रनाथ सेन । कुक्कुटकल्प - श्लोक 2000 । इसमें वशीकरण, विद्वेषण, उच्चाटन, स्तंभन, मोहन, ताडन, ज्वरबन्धन, जलस्तंभन, सेनास्तंभन आदि विविध तान्त्रिक कर्मों की सिद्धि के लिए मन्त्र-जप आदि उपाय बतलाए हैं। कुक्षिाभर-भैक्षवम् (प्रहसन) - ले. प्रधान वेङ्कप्प। ई. 18 वीं शती। श्रीरामपुर के निवासी। इस प्रहसन में पात्रों के नाम हास्यकारी एवं कथानक अश्लील सा है। कथासार - नायक कुक्षिम्भर बौद्धाचार्य, भ्रष्टाचारी तथा ढोंगी है। कामकलिका वारांगना को देखकर यह कामपीडित होता है। वह शिष्य वज्रदन्त से कहता है कि कामकलिका से मिला दो। कुक्षिम्भर की रखैल कुर्करी को यह वृत्त ज्ञात होता है। कुर्करी का परिचारक पिचण्डिल वक्रदन्त से कहता है कि एक हूण "किलकिल - हुकटक" कामकलिका का प्रेमी है जो गुरु के नाक कान कटवा लेगा। कुक्षिम्भर बुद्धायतन वन की ओर निकलता है। मार्ग में उसकी कई प्रेमिकाएं मिलती हैं। आगे चलकर उसे जंगम तथा कापालिक मिलते हैं। कापालिक कुक्षिम्भर की बलि चढाने की सोचता है। वहां से वह जैसे तैसे बच निकलता है। आगे उसे जैन क्षपणक मिलता है जो अमर्ष का उपदेश देता है। नायक का शिष्य भल्लूक उस पर दण्डप्रहार करके कहता है कि अब इसी प्रकार योगी, चार्वाकपन्थी, दिगम्बर तथा वैदेशिक विट उसे मिलते हैं और
सभी पन्थों की पोल खुलती जाती है। ___ जब वह बुद्धायतन पहुचता है, तब विधवा कुर्करी कामकालिका के हूण प्रेमी का और पिचण्डिल उसके भृत्य का रूप धारण कर आते है। पिचण्डिल नायक के शिष्यों को पीटता है। इसी समय वास्तविक हूण और उसका भृत्य उपस्थित होता है। हूण कुर्करी को दण्डित कर उस पर बलात्कार करता है और भृत्य पिचण्डिल से मैथुन करता है। कृक्षिम्भर कुर्करी को छुडाने जाता है, तो भृत्य उसके साथ भी मैथुन करता है। फिर दोनों निकल जाते हैं। इतने में कामकलिका को लेकर वक्रदन्त आता है। विदूषक कहता है कि कुक्षिम्भर मठ की सम्पत्ति कामकलिका पर लुटायेगा। फिर वक्रदन्त मठाधिपति बनता है। कुचशतकम् - ले. आत्रेय श्रीनिवास । कुचेलवृत्त चम्पू- ले. नारायण भट्टपाद। विषय- कृष्णसुदामा की कथा । कुचेलोपाख्यानम् - ले. त्रावणकोर के नरेश राजवर्म कुलदेव। ई. 19 वीं शती। विषय- कृष्ण-सुदामा की कथा । कुट्टनीमतम् - ले. दामोदर गुप्ता। "राजतरंगिणी" से तथा स्वयं इस काव्यग्रंथ की पुष्पिका से ज्ञात होता है कि दामोदर गुप्त, काश्मीर नरेश जयापीड (779-813) ई. के प्रधान अमात्य थे। उनकी प्रस्तुत रचना तत्कालीन समाज के एक वर्ग विशेष (कुट्टनी अर्थात वृद्ध वेश्या) पर व्यंग है। इसमें लेखक ने अपने समय की एक दुर्बलता को अपनी पैनी दृष्टि से देखकर, उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त की है और उसके सुधार व परिष्कार का प्रयास किया है। प्रस्तुत ग्रंथ भारतीय वेश्यावृत्ति से संबंधित है। इसमे एक युवती वेश्या को कृत्रिम ढंग से प्रेम का प्रदर्शन करते हुए तथा चाटुकारिता की समस्त कलाओं का प्रयोग कर धन कमाने की शिक्षा दी गई है। कवि ने विकराला नामक कुट्टनी के रूप का बड़ा ही सजीव चित्रण किया है।प्रस्तुत काव्य में 1059 आर्याएं हैं। यत्र-तत्र श्लेष का मनोरम प्रयोग है, और उपमाएं नवीन तथा चुभती हुई हैं।
प्रस्तुत "कुट्टनीमतम्" के 2 हिन्दी अनुवाद प्रसिद्ध हैं। 1) अत्रिदेव विद्यालंकार कृत अनुवाद, काशी से प्रकाशित। 2) आचार्य जगन्नाथ पाठक कृत अनुवाद, मित्र - प्रकाशन, अलाहाबाद। कुब्जिकातन्त्र - 1) श्लोक - 720। शिव-पार्वती संवादरूप । नौ पटलों में विभक । विषय- मन्त्रार्थ का विवरण, मन्त्रचैतन्य, योनिमुद्रा, दिव्य, वीर और पशु भाव, ऐन्द्रजालिक विधि और मन्त्र-सिद्धि।
2) श्लोक सं- 453। पुष्पिका से ज्ञात होता है कि देवी-ईश्वर संवादरूप यह मौलिक तन्त्र 14 पटलों में पूर्ण है। विषय- स्त्रीदोष-लक्षण, रक्तमातृका-पूजा, नाडीशुद्धि, देवीपूजा,
74/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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