Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01 Author(s): Kamtaprasad Jain Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia View full book textPage 6
________________ आभार । " संक्षिप्त जैन इतिहास " के पहले दो भाग प्रगट होचुके हैं। आज उसका तीसरा भाग पाठकोंके हाथोंमें देते हुए हमें प्रसन्नता है । यह तीसरे भागका पहला खण्ड है और इसमें दक्षिण भारतके जैनधर्म और जैन संघका इतिहास - पौराणिककालसे प्रारंभिक ऐतिहासिक कालतकका संकलित है । सम्भव है कि विद्वान् पाठक पुराणगत वार्ताको इतिहास स्वीकार न करें, परन्तु उन्हें स्मरण होना चाहिये कि भारतीय शास्त्रकारोंने पुराण वार्ताको भी इतिहास घोषित किया है । जबतक इस पुराण वासके विरुद्ध कोई प्रबल प्रमाण उपलब्ध न हो तबतक उसे मान्य ठहराना हमारा कर्तव्य है । आखिर प्रा ऐतिहासिक कालके इतिहासको जाननेके वही तो एक मात्र साधन हैं - उन्हें हम भुला कैसे दें ? उनके एवं अन्य साक्षीके आधार से हमने दक्षिणभारत में अनधर्मका अस्तित्व अतिप्राचीन सिद्ध किया है । आशा है, विद्वज्जन हमारे इस मतको स्वीकार करने में संकोच नहीं करेंगे। इस अवसर पर हम इन पुराण और शास्त्रकारोंका आभार हृदयसे स्वीकार करते हैं। साथ ही अन्यान्य सम्माननीय लेखकोंके भी हम उपकृत हैं जिनकी रचनाओंसे हमने सहायता ग्रहण की है। यहां पर हम अध्यक्ष, श्री जैन सिद्धांत भवन - मारा और सेठ मूलचन्द किसनदासजी कापड़िया को भी नहीं भुला सक्ते । उन्होंने आवश्यक साहित्य जुटाकर हमारे कार्यको सुगम बना दिया जिसके लिये वह हमारे हार्दिक धन्यवाद के पात्र हैं। आशा है कि जबतक कोई इससे भी श्रेष्ठ जन इतिहास न रचा जाय, तबतक यह पाठकोंकी आवश्यकता की पूर्ति करेगा । एवमस्तु ! (एटा) ता० १६-८-३७ | } विनीत-कामताप्रसाद जैन । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.comPage Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 174