Book Title: Sanch Ko Aanch Nahi
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Chandroday Parivar

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Page 14
________________ 4-0 “सांच को आंच नहीं” (0902 'व्यवहार का ज्ञान की समीक्षा इस प्रकरण में लेखक श्री ने की हुई सभी बातें खुद को ही लागु होती है। दी हुई गालियाँ भी रिबाउंस (Rebounce) होकर उन्हें ही लगेगी। चूंकि मूर्तिपूजकों को कपूत और खुद के पंथवालों को सपूत बताकर यह प्रकरण रचा है। अपने मुंह अपनी बढाईयाँ करनेवालों की दुनिया में कमी नहीं हैं। प्रमाणो से सिद्ध किये बिना वे बातें स्वीकार्य नहीं होती हैं । अब हम सत्य प्रमाणों के आधार से 'मूर्तिपूजक सपूत हैं', उसका निर्णय करेंगे - .. सालों पहले स्थानकवासी और दिगंबर कल्पसूत्र को अप्रामाणिक कहते थे । उसकी पट्टावलीयों को काल्पनिक कहते थें । परंतु मथुरा के कंकाली टीले का अंग्रेजों द्वारा उत्खनन हुआ । उसमें अनेक अतिप्राचीन जिनप्रतिमाएं निकली । वे आज भी पुरातत्त्व संग्रहालय में विद्यमान है । जिनपर प्राचीन लिपी में लेख हैं, उसमें बहुत सारे आचार्यों के नाम अंकित हैं । अनेक विद्धानों द्वारा निर्णय होने पर पता चला कि उनकी शाखा - गण आदि सभी कल्पसूत्र की पट्टावली से ही मिलते हैं । प्राचीन कल्पसूत्र की पुस्तकों में जैसे गर्भापहार के चित्र दिये हैं, वैसे दृश्यवाला शिलापट्ट भी मिला, यह देखकर दिगंबर, स्थाकनवासियों को चुप्पी करनी पडी । इतना होने पर भी लेखक तो अभी भी कल्पसूत्र में प्रक्षेप और झूठी कल्पनाओं का होना मानते है, यह कैसा कदाग्रह ? फिरभी उस कल्पसूत्र के आधार से खुद को सपूत कहने जा रहै है ! है ना लेखक श्री की अक्लमंदता ! कल्पसूत्र को प्रमाण माने बिना खुद सपूत कैसे बनेंगे ? स्थानकवासी समाज के समर्थ विद्धान देवेन्द्रमुनिशास्त्रीजी भी कल्पसूत्र की प्रामाणिकता को स्वीकारते हुए कहते है कि - - “वर्तमान में जो पर्युषणाकल्पसूत्र है, वह दशाश्रुतस्कंध का ही आठवाँ अध्ययन है। दशाश्रुतस्कंध की प्राचीनतम प्रतियाँ (१४ वी शताब्दी से पूर्व की) जो पुण्यविजयजी महाराज के असीम सौजन्य से मुझे देखने को मिली हैं, उनमें आठवें अध्ययन में पूर्ण कल्पसूत्र आया है जो यह स्पष्ट प्रमाणित करता है कि - 10 -

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