Book Title: Sanch Ko Aanch Nahi
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Chandroday Parivar

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Page 76
________________ "सांच को आंच नहीं" 00: छापा, तब इसकी नकल भावनगर के “जैन" पत्र के ऑफिस को भेजी और वह लेख जैन के “भगवान् महावीर जन्म कल्याणक विशेषाङ्क” में छपकर प्रकट हुआ, हमारा वह संक्षिप्त लेख निम्नलिखित था । श्री स्थानकवासी जैनसंघ से प्रश्न : पिछले लगभग अर्द्धशताब्दी जितने जीवन में अनेक विषयों पर गुजराती तथा हिन्दी भाषा में मैने अनेक लेख तथा निबन्ध लिखे हैं, परन्तु श्री स्थानकवासी जैनसंघ को सम्बोधन करके लिखने का यह पहला ही प्रसंग है, इसका कारण है “श्री पुप्फभिक्खू” द्वारा संशोधित और सम्पादित “सुत्तागमे ” नामक पुस्तक का अध्ययन । पिछले कुछ वर्षों से प्राचीन जैन साहित्य का स्वाध्याय करना मेरे लिए नियम सा हो गया है, इस नियम के फलस्वरूप मैंने “सुत्तागमे” के दोनों अंश पढे, पढने से मेरे जीवन में कभी न होने वाला दुःख का अनुभव हुआ । मेरा झुकाव इतिहास संशोधन की तरफ होने से “श्री लौकागच्छ ” तथा “श्री बाईस सम्प्रदाय" के इतिहास का भी मैंने पर्याप्त अवलोकन किया है । लौकाशाह के मत - प्रचार के बाद में लिखी गई अनेक हस्तलिखित पुस्तकों से इस सम्प्रदाय की पर्याप्त जानकारी भी प्राप्त की, फिर भी इस विषय में कलम चलाने का विचार कभी नहीं किया, क्योंकि संप्रदायों के आपसी संघर्ष का जो परिणाम निकलता है उसे में अच्छी तरह जानता था । लौकाशाह के मौलिक मन्तव्य क्या थे, उसको उनके अनुयायियों के द्वारा १६ वी शताब्दी के अन्त में लिखित एक चर्चा-ग्रन्थ को पढ़ कर मैं इस विषय में अच्छी तरह वाकिफ हो गया था । उस हस्तलिखित ग्रन्थ के बाद में बनी हुई अनेक इस गच्छ की पट्टाविलयों तथा अन्य साहित्य का भी मेरे पास अच्छा संग्रह है। स्थानकवासी साधु श्री जेठमलजी द्वारा संदृब्ध “समकितसार" और इसके उत्तर में श्री विजयानन्दसूरि - लिखित “सम्यक्त्व शल्योद्धार” तथा श्री अमोलकऋषिजी द्वारा प्रकाशित ३२ सूत्रों में से भी कतिपय सूत्र पढ़े थे । यह 72

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