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"सांच को आंच नहीं"
(३) साधु के वेश में 'डोरे से मुंहपत्ति बांधना' किसी आगम या आगमेतर शास्त्र में नहीं आता है, परंतु हाथ में मुंहपत्ति रखने की बात ही आती है ।
(अ) 'हत्थगं संपमज्जित्था ....' (दशवै. पूअध्य. गा. ८३ )
'हस्तकं मुखवस्त्रिका रुपम्, आदायेति वाक्यशेष:, संप्रमृज्य विधिना तेन कार्य तत्र भुञ्जीत 'संयतो' रागद्वेषावपाकृत्येति सूत्रार्थ: ।' (हारिभद्री टीका) मुंहपत्ति के लिये 'हत्थगं' शब्द ही बताता है कि मुंहपत्ति हाथ में रखने की है और उसीसे काया की प्रमार्जना शक्य है ।
(ब) ततेणं सा मियादेवी तं कट्ठसगडियं अणुकड्ढमाणी अणुकड्ढमाणी जेणेव भूमिघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चउप्पुडिणं वत्थेणं मुहं बंधेति, मुंह बंधमाणि भगवं गोयमं एवं वयासी - तुब्भे वि णं भंते ! मुहपोत्तियाए मुहं बंध । तते णं से भगवं गोयमे मियादेवीए एवं वृत्ते समाणे मुहपोत्तियाए मुहं बंधेति । (श्री विपाकसूत्रं, प्रथम अध्ययन )
इस मूल आगम में स्पष्ट बताया है कि मृगादेवी ने पहले खुदने चारपड के वस्त्र से अपने मुंह को बांधा और फिर गौतम स्वामीजी को मुंहपत्ति से मुंह बांधने को कहा है। व्यवहार में भी दुर्गंध से बचने के लिए मुंह बांधते उसमें मुंह (दो होठ ) एवं नांक दोनो ढंक जावे उस तरह बांधते है अकेले नाक को नही बांधते है और ना ही मुंह (दो होठ ) ढके हो तो नाक को ढंकने के लिए “ मुंह बांधो " ऐसा कहते है अपितु “ नाक बांधो” ऐसा ही प्रयोग किया जाता है, इसलिए 'मुहं बंधह' से केवल नाक बांधने का कथन समझना भी गलत ही है । दुसरी बात जैसे मृगावती के लिए “मुहं बंधेति” लिखा वैसे गौतमस्वामीजी के लिए भी “ मुहं बंधेति” ही पाठ है अत: जैसे मृगावती का मुंह पहले खुला (ढांके बिना का ) था और बाद में मुंह को बांधा था वैसे ही इस मूल आगम से गौतम स्वामी के मुंह पर मुंहपत्ति नहीं बंधी हुई थी, यह सिद्ध होता है ।
(स) आवश्यक निर्युक्ति और टीका में काउस्सग्ग में मुंहपत्ति दाहिने हाथ में, रजोहरण बायें हाथ में रखने का स्ष्ट उल्लेख है, उससे सिद्ध होता है,
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