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" सांच को आंच नहीं"
उसी तरह पुरे दिन मुंहपत्ति बांधे रखने में भी प्रमाद एवं जीवदया के परिणाम का सातत्य भी नहीं रहता है और ईसीलिए ऐसा देखा भी गया है कि क्रिया में चुस्त ऐसे स्थानकवासी संत भी आहार करते समय मुंहपत्ति निकालकर, मुक्तदिल से खुले मुंह बोलते है, जबकि मंदिरमार्गी कई संत जिन्हें मुंहपत्ति का उपयोग रखने की अप्रमत्तता है, वे आहार करते समय भी प्रयोजन आने पर पानी से मुँह को शुद्ध करके मुंहपत्ति या वस्त्रखंड को मुंह के आगे रखकर बात करते है ।
जिज्ञासु : आपका अनंत उपकार है, आपने मेरी मिथ्या-भ्रान्ति मिटायी और मुझे अनेकान्तवाद की दिव्यदृष्टि प्रदान की । परंतु, मुझे एक छोटा संशय रह गया है, जो पुछना चाहता हूँ ? सद्गुरु : नि:शंक पुछो ।
जिज्ञासु : कई मंदिरमार्गी संतों को भी मुंहपत्ति को मुंह के आगे रखकर बोलने में भूल होती रहती है, प्रमाद आ जाता है, तो क्या इस दोष से बचने के लिए मुंहपत्ति बांधकर रखने का आपवादिक आचरण स्वीकार्य नहीं हो सकता है ?
सद्गुरु : नहीं! क्योंकि देश - काल आदि की विषमता के कारण अपवाद का सेवन करना विहित है परंतु मुंहपत्ति बांधे रखने के लिए ऐसी कोई विषम परिस्थितियां नहीं है, अतः वह अपवाद का स्थान नहीं है, तथा
(१) अनाभोग आदि से, प्रमाद से उपयोग नहीं रहना छोटा दोष है जबकि २४ घंटे मुंह पर बांधने में बडे प्रमाद का दोष लगता है !
(२) पुरे दिन भर शास्त्रनिर्दिष्ट मुंहपत्ति के कई अन्य कार्य होते हैं, जैसे कि गोचरी एवं संथारा के पहले मुंह आदि की प्रमार्जना तथा हाथ, मुंह आदि पर चींटी आदि सूक्ष्मजीव आ जावें, तो वहाँ रजोहरण उपयोगी नहीं बनता है, वहाँ पर तो मुंहपत्ति का ही प्रयोग किया जाता है। ऐसे जीवरक्षा के प्रयोजन, मुंहपत्ति बांधी हुई रखने पर सिद्ध नहीं हो सकते है । अत: संयम विराधना का दोष भी लगता है । अगर इस हेतु पूजनी वगैरह रखें तो अधिक उपकरण का दोष लगता है ।
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